भारत में आरक्षण व्यवस्था एक संवेदनशील और विवादास्पद मुद्दा है। यह व्यवस्था समाज के पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए बनाई गई थी। हालांकि, समय के साथ, राजनीतिक दलों ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए इस व्यवस्था का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। हाल ही में, कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा मुस्लिम समुदाय को ओबीसी कोटे में आरक्षण देने के फैसले को रद्द कर दिया है। इस फैसले के बाद राजस्थान सरकार भी अपने ओबीसी आरक्षण की समीक्षा करने की योजना बना रही है।
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आरक्षण: एक पृष्ठभूमि :
ममता बनर्जी की सरकार ने 2011 में सत्ता में आने के बाद पश्चिम बंगाल में मुस्लिम समुदाय के 77 समूहों को ओबीसी आरक्षण का लाभ देना शुरू किया। यह कदम तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया था। हालांकि, कलकत्ता हाई कोर्ट ने इसे अवैध करार देते हुए 2011 से अब तक जारी किए गए 5 लाख से अधिक ओबीसी प्रमाण पत्रों को भी रद्द कर दिया। कोर्ट का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 के तहत धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने के सिद्धांत पर आधारित था।
राजस्थान का परिदृश्य: मुस्लिम आरक्षण की समीक्षा :
राजस्थान में, 14 मुस्लिम जातियों को 1997 से 2013 के बीच ओबीसी आरक्षण का लाभ दिया गया था। अब, कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले के बाद, राजस्थान सरकार भी ओबीसी आरक्षण के तहत आने वाली सभी जातियों की समीक्षा करने की योजना बना रही है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री अविनाथ गहलोत ने स्पष्ट किया कि वे धार्मिक आधार पर आरक्षण के खिलाफ हैं और इसे संवैधानिक रूप से गलत मानते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी का रुख :
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी धार्मिक आधार पर आरक्षण के खिलाफ हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे इसे लागू नहीं होने देंगे। मोदी का मानना है कि कांग्रेस अपने कर्नाटक फॉर्मूले को पूरे देश में लागू करना चाहती है, लेकिन भाजपा सरकार ऐसा नहीं होने देगी। यह दृष्टिकोण तुष्टिकरण की राजनीति के खिलाफ है और संविधान के सिद्धांतों का पालन करता है।
अन्य राज्यों की स्थिति :
देश के अन्य राज्यों में भी मुस्लिम समुदाय को ओबीसी आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। कर्नाटक और केरल में भी मुस्लिमों की भारी भागीदारी है और वे आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। इन राज्यों में कांग्रेस या उनके सहयोगी दलों की सरकारें रही हैं, जिन्होंने तुष्टिकरण की राजनीति के तहत ये फैसले लिए थे।
सुप्रीम कोर्ट और आरक्षण की सीमा :
इंदिरा साहनी कमीशन के आधार पर, अधिकतर राज्यों में ओबीसी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया गया है। कई राज्यों ने इस सीमा को तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन राज्यों की सरकारों को रोक दिया। मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों की मनमानी पर रोक लगाई है। हालांकि, तमिलनाडु जैसे राज्य, जहां ओबीसी वर्ग की बड़ी आबादी है, ने इस सीमा को पार किया है।
पंजाब का अपवाद :
पंजाब में एसटी आरक्षण नहीं है क्योंकि राज्य में एसटी कैटिगिरी के लोग नहीं हैं। यहां एससी आरक्षण का ज्यादा है, लेकिन धार्मिक आधार पर सीधे आरक्षण का मामला कहीं नहीं है। इस कारण पंजाब का मामला अन्य राज्यों से भिन्न है।
तुष्टिकरण की राजनीति और संवैधानिक व्यवस्था :
देश की आजादी के समय ही यह स्पष्ट कर दिया गया था कि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं होगा। इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था की गई थी। लेकिन वोट बैंक की चाहत में राजनीतिक पार्टियों ने संवैधानिक मर्यादाओं को नजरअंदाज करते हुए मुस्लिमों को आरक्षण देना शुरू कर दिया।
भविष्य की दिशा :
कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसले के बाद, यह संभावना है कि अन्य राज्य भी ओबीसी कोटे में शामिल जातियों की समीक्षा करेंगे। राजस्थान सरकार इस दिशा में पहला कदम उठा चुकी है। भाजपा शाषित राज्यों में इस दिशा में अधिक सक्रियता देखने को मिल सकती है।
निष्कर्ष :
धार्मिक आधार पर आरक्षण का मुद्दा संवैधानिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है और अन्य राज्यों के लिए एक नजीर बन सकता है। यह फैसला न केवल संविधान के सिद्धांतों की रक्षा करता है बल्कि समाज के वास्तविक जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने में भी मदद करेगा। आने वाले समय में, यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्य राज्य किस प्रकार से इस मुद्दे पर अपनी नीतियों में बदलाव करते हैं और तुष्टिकरण की राजनीति से बाहर निकलते हैं।