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कट्टरता की भयावहता: जब धर्म मानवता पर भारी पड़ जाए

यह कहानी किसी काल्पनिक दुनिया की नहीं है। यह आधुनिक, विकसित, और शिक्षित कहे जाने वाले समाज की है — यूनाइटेड किंगडम (UK) की। लेकिन जिस अमानवीयता की यह घटना गवाह बनी, वह हमें सदियों पुरानी धार्मिक कट्टरता की याद दिलाती है, जहाँ एक इंसान, अपनी ही औलाद को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार देता है क्योंकि वह "धर्म की किताब" को ठीक से याद नहीं कर पाया।


सालों पहले यूके में एक मुस्लिम महिला, जिसका नाम सारा एग था, ने अपने 7 साल के मासूम बेटे यासीन को इतनी बेरहमी से पीटा कि उसकी जान चली गई। उसके शरीर पर चोटों के निशान बताते हैं कि उसके साथ जानवरों से भी बुरा सलूक हुआ — टूटी हुई पसलियाँ, फ्रैक्चर हुई बाँह और कलाई, टूटी हुई कॉलर बोन, उंगलियों की हड्डियाँ टूटी हुई, पेट में अंदरूनी चोटें, दिमाग में सूजन, और अंततः पेट से खून बहना।

यासीन की "गलती"? वह क़ुरान की आयतें ठीक से याद नहीं कर पाया था।

सोचिए, एक 7 साल का बच्चा, जिसे इस उम्र में खेलना-कूदना, स्नेह पाना और दुनिया को जानना चाहिए, उससे उम्मीद की जा रही थी कि वह अरबी भाषा में लिखी एक प्राचीन धार्मिक पुस्तक को रट ले। और जब वह ऐसा नहीं कर पाया, तो उसकी माँ — वही व्यक्ति जिससे उसे सबसे ज़्यादा सुरक्षा और प्यार मिलना चाहिए था — उसके लिए सबसे बड़ा खतरा बन गई।

मगर ये यहीं खत्म नहीं होता। अपने अपराध को छुपाने के लिए सारा एग ने अपने घर में आग लगा दी, ताकि सबूत मिटाया जा सके। बाद में जब पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया और पूछताछ की, तो उसने बताया कि उसे "शैतान" ने उकसाया था और वह अपने बेटे को "इस्लाम के रास्ते पर लाना" चाहती थी।

यह बयान बताता है कि कैसे धार्मिक कट्टरता किसी व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति को खत्म कर देती है। एक माँ, जो स्वाभाविक रूप से दया, ममता और रक्षा का प्रतीक मानी जाती है, वह एक क्रूर हत्यारिन बन जाती है — सिर्फ इसलिए क्योंकि उसे यकीन था कि वह अपने बेटे को "काफिर" बनने से बचा रही है।

यह घटना न केवल एक माँ और बेटे की कहानी है, बल्कि यह उन सभी खतरों का प्रतिनिधित्व करती है जो धार्मिक उन्माद से जन्म लेते हैं। और यह बात सिर्फ एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है — यह सोच, यह मानसिकता, एक पूरी कौम में घर कर गई है, जहाँ अक्सर देखा जाता है कि बच्चों को बहुत छोटी उम्र से धार्मिक किताबें याद करवाने के नाम पर शारीरिक और मानसिक यातना दी जाती है।

इस घटना ने एक और तथ्य को उजागर किया — कि धार्मिक पागलपन की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। सारा एग मूलतः भारत से ताल्लुक रखती थी। इसका मतलब यह नहीं कि भारत दोषी है, पर यह ज़रूर बताता है कि यह सोच कई जगहों पर पनप रही है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि धार्मिक आस्था किसी का निजी मामला है, लेकिन जब यह आस्था इतनी जहरीली बन जाए कि वह मासूमों की जान लेने लगे, तो यह सिर्फ 'आस्था' नहीं रहती — यह आतंक बन जाती है।

अब ज़रा सोचिए — जब एक मुस्लिम महिला अपने ही बेटे के साथ ऐसा कर सकती है, तो वह दूसरों के बच्चों के साथ क्या करेगी, जिन्हें वह "काफ़िर" समझती है? यह सवाल डराता है, चौंकाता है, और एक सख्त चेतावनी देता है: धार्मिक पागलपन से दूर रहो।

हमें एक समाज के रूप में यह तय करना होगा कि क्या हम धर्म को इंसानियत से ऊपर रखेंगे? क्या किताबें ज़िंदगी से ज़्यादा कीमती हैं? क्या भगवान को खुश करने के लिए हमें इंसानों को मारना होगा?

यह घटना हमें एक आइना दिखाती है — कि अगर हम समय रहते नहीं जागे, तो यह कट्टरता हमारे समाज, हमारे बच्चों, और हमारी मानवता को निगल जाएगी।