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बच्ची का बलात्कारी 5 बार नमाज पढ़ता है इसलिए नही दे सकते सजा ?

उड़ीसा हाई कोर्ट अब बलात्कारियों पर मेहरबान। जिस मोहम्मद अकील ने 6 वर्ष की बच्ची का बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी उसको कोर्ट ने ये कहते हुए छोड़ दिया की वो दिन में 5 बार नमाज पढ़ता है। इसलिए हम उसको फांसी नही दे सकते। मोहम्मद आकिल को समय दीजिये वो सुधर जाएगा। मेहरबान जज यहीं नहीं रुके उन्होंने यहां तक कह डाला की, "बच्ची की बहन भी उसके साथ थी पर अपराधी ने उसका न तो रेप किया, न हत्या की। ये है हमारी न्यायिक परक्रिया।"

क्या है पूरा मामला :
हाल ही में ओडिशा हाई कोर्ट ने एक विवादास्पद निर्णय में 6 साल की बच्ची के रेप और हत्या के मामले में शेख आसिफ अली की सजा को फाँसी से घटाकर उम्रकैद कर दिया। इस मामले ने न्यायिक प्रणाली और समाज में एक गंभीर बहस को जन्म दिया है। यह घटना 21 अगस्त 2014 की है जब 6 साल की एक बच्ची, चॉकलेट खरीदने गई थी। बच्ची का अपहरण अकील अली और आसिफ अली ने कर लिया था। बच्ची को नग्न और बेहोशी की हालत में पाया गया था और अस्पताल ले जाने पर डॉक्टरों ने संदेह जताया कि उसके साथ रेप हुआ है। जहाँ से उसे कटक के एससीबी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में रेफर कर दिया गया। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई। 

ट्रायल कोर्ट का फैसला :
ट्रायल कोर्ट ने आसिफ अली और अकील अली को आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 376-डी (सामूहिक बलात्कार), 376-ए और पोक्सो अधिनियम की धारा 6 (यौन उत्पीड़न) के तहत दोषी पाया और फाँसी की सजा सुनाई थी। यह निर्णय पीड़िता के परिवार के लिए एक राहत का संकेत था। 

हाई कोर्ट का निर्णय
ओडिशा हाई कोर्ट की खंडपीठ ने, जिसमें जस्टिस एस.के. साहू और जस्टिस आर.के. पटनायक शामिल थे, अकील अली को सभी आरोपों से बरी कर दिया और आसिफ अली की फाँसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। कोर्ट ने कहा कि "आरोपित दिन में कई बार नमाज अदा करता है और खुद को अल्लाह को समर्पित कर दिया है, ऐसे में वह कोई भी सजा भुगतने को तैयार है।" 

फैसले का विश्लेषण :
हाई कोर्ट ने कहा कि सजा अनुपातहीन रूप से बड़ी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि "यह रिकॉर्ड से प्रमाणित है कि अपराध सबसे वीभत्स, शैतानी और बर्बर तरीके से किया गया था, लेकिन मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित है और रिकॉर्ड पर ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है कि अपराध पूर्व-नियोजित तरीके से किया गया था।"

न्यायिक प्रणाली पर प्रश्न :
हाई कोर्ट के इस निर्णय पर समाज में मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। कई लोग इस निर्णय को न्याय की अवहेलना मानते हैं, जबकि कुछ लोग कोर्ट के तर्कों को समझने की कोशिश कर रहे हैं। पीड़िता के परिवार ने इस निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाने का फैसला किया है। यह मामला भारतीय न्यायिक प्रणाली पर कई प्रश्न खड़े करता है। क्या धार्मिक आस्थाओं और आचरण का सजा पर प्रभाव होना चाहिए? क्या न्यायिक प्रणाली को अधिक संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए या अपराध की गंभीरता के आधार पर कठोर सजा दी जानी चाहिए?

खबर का निष्कर्ष :
ओडिशा हाई कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि किस प्रकार न्याय और दया का संतुलन स्थापित किया जाए। न्यायिक प्रणाली को इस मामले में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है ताकि पीड़िता के परिवार को न्याय मिल सके और समाज में न्याय की स्थापना हो सके।