हम हिन्दू दूसरे के अनुभवों से सीखना तो दूर, हम इतिहास क्या हम तो खुद अपने अनुभवों से भी सीखना पसन्द नही करते। शायद यही कारण है कि अथाह ज्ञान के विशाल समुद्र के वारिस होने के बाद भी हम दूसरों की तरफ अपनी समस्याओं के समाधान के लिए हर समय टकटकी लगाए देखते रहते है। और इसी मनोदशा ने हमे भीरुता के स्तर तक ढकेल दिया है। हमने अपने धर्म ग्रंथों को केवल बोझ समझा है, औऱ जिससे ये मुक्ति पाने को हमेशा लालायित दिखते है।
वही अन्य समुदायों ने इन्ही ग्रंथो से सार निकाल कर अपनी और अपनों की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। जिन सिद्धान्तों के दम पर आधुनिक विज्ञान चलता है, वो लम्बे समय से हमारे यहाँ कूड़े में पडे धूल फांक रहे है। 33 कोटि देवी देवता हिन्दुओ का कल्याण करने को पर्याप्त नही है, हमें और पीर फकीर मजारें चाहिए। काम नही करना, पुरुषार्थ करने से तो हमारा कलेजा जो फट जाता है। इतना ही नही खुद को तो करना नही, जो करते है उनको हेय दृष्टि से देखना हमारा प्रमुख शगल है।
शायद यही कारण है कि करोड़ो रुपयो के मासिक व्यवसाय नाई, धोबी, बढ़ई, राज मिस्त्री जैसे पारंपरिक काम आज हमारे के हाथो से पूरी तरह फिसल चुके है। गाड़ियों की मरमत, पंक्चर जोड़ने और हवा डालने का काम हो या चमड़े का धंधा, फल, सब्जी का काम आज लाखो लोगो को रोजगार मुहिया करा रहे है। मगर दुर्भाग्य से इसमें हिन्दुओ की भागीदारी न्यून है।
कल तक चमड़े के काम पर एक छत्र अधिकार रखने वाले मोची और चर्मकार हिन्दू समाज के लोग सामाजिक उपेक्षा और कुछ दलालो के मिथ्या प्रवचन में पड़कर अपना भारी आर्थिक नुकसान कर चुके है। हमने बड़ी बारीकी से अपने धर्म ग्रंथों से उन पंक्तियों का चुनाव किया, जिसमे भाग्यवादी बनने की तरफ जाने का मार्ग सहज सुलभ हो सके।
जैसे... "होइ वही जो राम रचि राखा"
वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा टाइप प्रवचन हम हिन्दुओ की कमजोरी रहे है। हिन्दुओ ने कभी रामचरितमानस के सुन्दर कांड की उस पंक्ति को ध्येय नही बनाया जिसमे कहा गया है कि, कादर मन कहु एक अधारा।
"दैव दैव आलसी पुकारा"
दुर्भाग्य से हम गीता रामायण को भी सिर्फ घरों में पूजा के स्थान तक ही स्थापित कर सके है, अपने जीवन में नही। आज हिन्दू हर मज़ार, हर पीर बाबा हर जिन्नात के सामने झोली फैलाए सर झुकाए खड़ा मिलेगा। किसी भी अन्य धर्म सम्प्रदाय के कोई भी मेले हो जिसमें आपको खूब भीड़ दिखेगी वहाँ आपको भाग्यवादी भिखारी हिन्दू ही ज्यादा दिखलाई देगें।
मुस्लिम खुद अपनी दरगाहो में आस्था नही रखते, क्योकि इस्लाम में इनका कोई वजूद ही नही है। वे तो वहां का केवल प्रशाशन देखते है और लाखो हिन्दुओ द्वारा चढ़ाई गयी करोडो की रकम में बन्दर बाँट करते है। और कुछ पैसा प्रचार में खर्च करके अगली बार और अधिक ग्राहकों की व्यवस्था करने में लग जाते है। सम्पूर्ण विश्व को आस्था में भी वैज्ञानिकता का दर्शन करवाने वाले धर्म के अनुयायियो का इस कदर अपने धार्मिक विश्वास से विचलन मुझे हमेशा विचलित करता रहता है।