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प्राचीन भारत में ययाति ना के एक महाबलशाली प्रतापी राजा राज करते थे, जिनकी राजधानी खंडवप्रस्थ थी। इसी स्थान पर आगे चल कर इंद्रप्रस्थ बसा था।

ययाति की दो रानियाँ थी -

  • असुरो के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी 
  • असुरो के राजा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा 
देवयानी से दो पुत्र हुए -
  • यदु 
  • तुर्वसु
यदु का आगे जाकर नाम यदु वंश हुआ जिसमे श्री कृष्ण का भी जन्म हुआ। शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए, जिनमे सबसे छोटे पुत्र का नाम पुरु था, जो बहुत पराक्रमी तथा पितृभक्त था। ययाति ने पुरु को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। पुरु के नाम से ही पुरु वंश की परंपरा चली। पुरु वंश में आगे जाकर दुष्यंत हुए, जिन्होंने शकुंतला से विवाह किया तथा इनके पुत्र भरत के नाम पर ही हमरे देश का ना भारत परा। भरत वंश में हस्तिन नाम के राजा हुए जिन्होंने अपनी नै राजधानी हस्तिनापुर में बसाई।हस्तिन राजवंश में ही कुरु नाम के राजा हुए और इन्ही के वंशज कौरव कहलाए।  कुरु के नाम पर ही कुरुछेत्र प्रसिद्ध हुआ। 

अष्ट वसु का परिचय 
कहा जाता है की एक बार एक बार अष्ट वशु अपनी पत्नी के कहने पर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर निकले, सभी धामों के दर्शन के बाद अष्ट वाशु अपनी पत्नी के साथ वशिष्ठ ऋषि के आश्रम पहुंचे जहाँ उन्होंने यज्ञशाला, पाठशाला आदि का भ्रमण किया। आश्रम में भरण करते वक़्त अष्ट वशु अपनी पत्नी के साथ आश्रम के गौशाला भी पहुंचे जहाँ उन्होंने एक गौ को देखा जिसका नाम नंदनी था, ये गौ अष्ट वशु की पत्नी को भा गया और वो अष्ट वशु से उस गौ को स्वर्ग ले जाने की हाथ करने लगी। अष्ट वशु ने अपनी पत्नी को बहुत समझाने की कोशिश की ऐसा करना गलत होगा हमें पाप लगेगा लेकिन वो नहीं मानी और कहने लगी की हे नाथ !  है तो देव है, अमर है सो हमें कैसा पाप लगेगा। पत्नी के हठ के सामने अष्ट वशु को घुटने टेकने परे और इन दोनों ने नंदनी गौ को चुराकर स्वर्ग लोक ले गये।

अगले प्रातः जब ऋषि वशिष्ठ गौ शाला  उन्होंने पाया की नंदनी गौ वहाँ मौजूद नहीं थी, उन्होंने आस-पास देखा पर कुछ पता नहीं लगने पर ऋषि वशिष्ठ ने अपनी दिव्यदृस्टि से पूरे घटना क्रम को देखा की कैसे अष्ट वशु और उनकी पत्नी गौ को चुराकर स्वर्ग लोक ले गये। ऋषि वशिष्ठ काफी क्रोधित हुए और जिसके फल स्वरुप उन्होंने आठो वसुवो को शाप दे दिया की उन्हें देव होने का इतना अभिमान है जिसके चलते वो अधर्म पर भी अपना हक़ समझते है अतः आठो वसुवो को पृथ्वी पर जन्म लेकर पृथ्वी लोक के कष्टों को भोगना होगा।इसपर अष्ट वसुवो ने मुनि से प्रार्थना की तो मुनि ने कहा की माता गंगा द्वारा आठ में से सात वषुवों का उद्धार हो जायेगा पर सबसे उत्पति वसु प्रभाष को मृत्यु-लोक में बहुत दिनों तक रहना होगा।

शांतनु परिचय, 7 वसुवो की मुक्ति : 
शांतनु कुरु वंश के एक प्रतापी राजा थे इनके पिता का नाम प्रतीप था। शांतनु का विवाह भगवती गंगा से हुआ था, भगवती गंगा ने राजा शांतनु से इस शर्त विवाह करती है की उनको कभी किसी बात के लिए रोका या टोका न जाए और अगर उनको रोका या टोका गया तो वो राजा शांतनु को छोर कर चली जाएँगी, राजा शांतनु बिना किसी झिझक के इस शर्त को मान लेते है। राजा शांतनु तथा माता गंगा के विवाह के बाद इनदोनो की पहली संतान होती है, जिसे माता गंगा,  नदी में ही बहा देती और राजा शांतनु शर्त के कारण कुछ नहीं बोल पाते। समय के अनुसार माता गंगा को और राजा शांतनु को क्रमश 7 पुत्र हुए लेकिन माता गंगा ने एक-एक कर को सभी को नदी में बहा दिया और राजा शांतनु शर्त में बंधे होने के कारण कुछ नहीं कर पाए। इस प्रकार से 7 वसु को मुक्ति मिली।

पितामह भीष्म का जन्म :
माता गंगा द्वारा अपने और शंतनु के सात पुत्रो के नदी में बहाये जाने पर शांतनु काफी दुःखी और विचलित थे, शांतनु अपने शर्त में बंधे होने के कारण भगवती गंगा को रोक भी नहीं पा रहे थे। जब माता गंगा और राजा शांतनु को 8 वा पुत्र होता है और माता गंगा उनको भी नदी में बहाना चाहती है तो राजा शांतनु अपनी शर्त को तोड़ देते है और माता गंगा को 8 वे पुत्र को नदी में बहाने से मना करते है। माता गंगा शर्त टूटने के कारण राजा शांतनु से नाराज हो जाती है और कहती है की मैंने जिन 7 बच्चो को नदी में बहाया वो शापित थे और उनको शाप से मुक्त करने के लिए ही मै उनको नदी में बहा दिया करती थी, साथ ही माता गंगा ने राजा शांतनु को देवी गंगा होने की अश्लियत बताई और कहा की मै अपने 8 वे पुत्र को लेकर जा रही हूँ क्युकी आपने वचन भंग किया है।

भीष्म पितामाह का अपने पिता से मुलाकात :
राजा शांतनु पत्नी माता गंगा और 8 वे पुत्र के बिछरने के कारण हर रोज दुखी मन से गंगा नदी के किनारे जाते थे ताकि उनकी मुलाकात माता गंगा और 8 वे पुत्र से हो जाये। वर्षो बित गए और राजा शांतनु हर रोज किनारे जाते रहे लेकिन एक दिन उन्होंने गंगा तट  हट्टा-कट्टा जवान देखा, तभी माता गंगा प्रकट होती है और राजा शांतनु से कहती है ये कोई और नहीं आपका 8 वा पुत्र है, जिसका नाम देवव्रत है, देवव्रत को सभी वेदो, पुराणों एवं अस्त्र-सस्त्र का ज्ञान है और इनके गुरु कोई और नहीं परशुराम है। यह बात सुनकर राजा शांतनु बहुत प्रसन्न होते है और देवव्रत को अपने साथ हस्तिनापुर लेकर चले जजते है साथ साथ राज्य पहुँचकर राजा शांतनु देवव्रत को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी घोसित कर देते है लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर होता है।

भीष्म प्रतिज्ञा :
एक बार शांतनु ने यमुना नदी के किनारे एक सुंदर धीवर कन्या सत्यवती को देखा तथा उनसे विवाह करने की इच्छा प्रकट की लेकिन सत्यवती राजा शांतनु से विवाह करने से मना कर देती है कारन ये बताते हुए की अगर उनका विवाह राजा शांतनु से होता भी है तो उनके पुत्र राजा नहीं बन पाएंगे क्युकी राजा शांतनु ने पहले ही देवव्रत को उत्तराधिकारी घोसित कर दिया है। राजा शांतनु सत्यवती के इस फैशले से काफी आहत होते है और दुखी रहने लगते है। जब देवव्रत को इन बातो का पता चलता है तो वो सत्यवती से मिलते है और कहते है की मुझे सिंहशान को कोई लोभ नहीं है, इसलिए मै प्रतिज्ञा लेता हूँ की मै कभी सिंहशान पर नहीं बैठूंगा तथा जीवन भर अविवाहित रहकर राज्य की सेवा करूँगा। देवव्रत की इस भीष्म प्रतिज्ञा के कारण इनका नाम भीष्म परा तथा देवव्रत को अपने पिता की तरफ से प्रतिज्ञा के कारण इच्छा मृत्यु का भी वरदान मिला।

शांतनु तथा सत्यावती के विवाह पश्चात इन दोनों को दो पुत्र हुए -

  • चित्रांगद 
  • विचित्रवीर्य 
विचित्रवीर्य का विवाह एवं मृत्यु :
महराज शांतनु से वविवाह के पश्चात सत्यवती की चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुए, राजा शांतनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया, इसलिए उनका पालन-पोषण पितामह भीष्म ने ही किया। चित्रांगद के युवा होने पर उन्हें हस्तिनापुर का राजा बनाया गया, किन्तु कुछ वर्षो बाद गन्धर्वो से युद्ध करते हुए चित्रांगद मृत्यु को प्राप्त हो गये। चित्रांगद की मृत्यु के बाद विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया। विचित्रवीर्य  राजा तो बन गए लेकिन वो हर वक़्त मदिरा के नशे में डूबे रहते थे, पितामह भीष्म और राजमाता सत्यवती को हमेशा विचित्रवीर्य के विवाह की चिंता रहती थी। कुछ समय बीतने के बाद काशी के राजा ने अपने तीन पुत्रियो के लिए स्वयंवर रखा और उसमे हस्तिनापुर को संदेश नहीं भेजा गया क्युकी राजा विचित्रवीर्य के स्वाभाव से सब परिचित थे। जब ये बात भीष्म पितामाह को पता चली तो वो काफी क्रोधित हुए और कशी जाकर भीष्म पितामह ने हहाकार मचा दिया और राजा के तीनो पुत्रियो का अपहरण कर उन तीनो का विवाह विचित्रवीर्य से तये कर दिया।

उन तीनो अपहरित राजकुमारियों में से एक राजकुमारी का नाम अम्बा था जिन्होंने इस विवाह का विरोध किया और कहा की वो की मै महाराज साल्व से प्रेम करती थी और उनको मैंने अपना जीवन साथी चुन लिया था लेकिन आपके इस दुर्व्यह्वार से सब ख़त्म होगया इसलिए अब आपको मुझसे विवाह करनी होगी। पितामाह ने राजकुमारी अम्बा से कहा की वो जीवनभर अविवाहित रहने के लिए वचन वद्ध है इसलिए वो उनसे विवाह नहीं कर सकते। इस बात से आहात होकर राजकुमारी अम्बा भगवान शिव का तप करती है और खुद के लिए न्याय मांगती है, तब भगवान शिव राजकुमारी अम्बा को ये वचन देते है की अगले जन्म में तुम्ही पितामह भीष्म की मृत्यु का कारण बनोगी। वरदान मिलने के बाद  राजकुमारी अम्बा अपना शरीर त्याग देती है और महाराज द्रुपद के यहाँ शिखंडी के रूप में पुनर्जन्म लेती है जोकी आधे नर तथा आधी नारी का स्वरुप होती है।

अम्बा के जाने के बाद  विचित्रवीर्य का विवाह बाकी की दो कन्याओ के साथ होता है, विवाहोप्रान्त विचित्रवीर्य को दोनों रानियों में से किसी भी रानी से कोई संतान प्राप्त नहीं होती है और विचित्रवीर्य क्षय रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते है।

धृतराष्ट्र, पाण्डु एवं विदुर क्र जन्म का जन्म :
विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद अब कुल का नाश होने की परिस्थिति में राजमाता सत्यवती ने पितामह भीष्म को से कहा की हे पुत्र ! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिए तुम दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो। इसपर पितामह भीष्म ने कहा की हे माते ! मै अपने प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भांग नहीं कर सकता, इसपर राजमाता सत्यावती अत्यंत दुःखी हुई। अचानक राजमाता सत्यावती को महर्षि पराशर से उत्पत्र अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया, स्मरण करते ही राजमाता सत्यावती के सामने उपस्थित हो गये।राजमाता सत्यावती वेदव्यास को देखकर काफी प्रसन्न हुई और कहा हे पुत्र ! तुम्हारे सारे भाई निःसंतान ही स्वर्गवासी हो गये, अतः मेरे वंश का नाश होने से बचाने के लिए मई तुम्हे आज्ञा देती हूँ की तुम उनकी पत्नियों से पुत्र उत्पन्न करो। वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले माता ! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये की वो एक वर्ष  तक नियम-व्रत का पालन करते रहे, तभी उनको गर्भ धारण होगा।

एक वर्ष बित जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी के पास गये, अम्बिका ने वेदव्यास के तेज से दर कर अपने आँख बंद कर लिए। वेदव्यास लौटकर माता से बोले, हे माता ! अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा, किन्तु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अँधा होगा। माता सत्यावती को यह सुनकर काफी दुःख हुआ और उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। माता की आज्ञा पाकर महर्षि वेदव्यास रानी अम्बालिका के पास गए, अम्बालिका वेदव्यास को देखकर डर गयी।वेदव्यास पुनः लौटकर माता से बोले, हे माता ! अम्बालिका के गर्भ से रोग ग्रसित पुत्र होगा। यह सुनकर राजमाता सतावती पुनः काफी दुःखी हुई और उन्होंने अम्बालिका को बुलाकर आदेश दिया की आप पुनः वेदव्यास के पास जाए लेकिन इस बार रानी अम्बालिका खुद वेदव्यास के पास न जाकर अपनी प्रिये दासी को उनके पास भेज दिया। दासी ने आनंदपूर्वक महर्षि वेदव्यास से भोग करवाया, जिसके बाद वेदव्यास पुनः लौटकर माता से बोले, हे माता ! अम्बालिका ने अपनी जगह पर अपनी प्रिये देशी को भेज दिया लेकिन इस दासी जो पुत्र उत्पन्न होगा वो काफी ज्ञानी और वेद-वेदांत में परांगत अत्यंत नीतिवान होगा, इतना कह कर वेदव्यास पुनः तपस्या करने चले गए।

इस तरह से अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और दासी से विदुर का जन्म हुआ

धृतराष्ट्र का विवाह तथा कौरवो का जन्म :

माता गांधारी गांधार नरेश की पुत्री थी तथा बाल्य काल से ही माता गांधारी एक शिव भक्त थी, तथा माता गांधारी ने अपना मुख्य समय भगवान् शिव की भक्ति में बिताया जिससे भगवान् शिव माता गांधारी से प्रसन्न हुए और उनको 101 पुत्रो का वरदान दिया।

माता गांधारी की शादी विचित्रवीर्य के जेष्ठ पुत्र धृतराष्ट्र से हुई जो की नेत्रहीन थे, धृतराष्ट्र ने सोचा था की उनकी पत्नी नेत्रहीन न हो ताकि वो अपनी पत्नी की आँखों से साड़ी दुनिया देख सके तथा राज्य संभाल सके लेकिन ऐसा हुआ नहीं और माता गांधारी ने शादी के बाद पतिधर्म निभाते हुए अपनी आँखों पर भी पट्टी बांध लिया। इस बात से धृतराष्ट्र काफी नाराज हुए क्युकी उनकी अपंगता के कारण उनका राजतिलक नहीं हुआ बल्कि पाण्डु का हुआ।

धृतराष्ट्र माता गांधारी से इस कदर नाराज थे की वो माता गांधारी को अपने शमीप तक नहीं आने देते थे लेकिन शकुनि जो की अत गांधारी का भाई था, उसने धृतराष्ट्र को भगवान् शिव के वरदान के बारे में बताया की गांधारी को 101 संतान का वरदान है जो की आपके स्वप्नों को पूरा करेंगे। शकुनि की ये बात सुनकर महत्वकांछी धृतराष्ट्र को अपने स्वप्नों को पूरा करने का एक रास्ता नजर आया, अतः धृतराष्ट्र माता गांधारी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार लिया। अब माता गांधारी को गर्भ धारण किये हुए दश महीने से ऊपर का समय बीत चूका है लेकिन उन्हें अबतक प्रसव की पीरा नहीं हुई है। माता गांधारी को गर्व धारण करने के 15 महीने बाद प्रसव के दौरान एक बरा मास टुकड़ा हुआ, जिसको देख धृतराष्ट्र काफी नाराज हुए और माता गांधारी को बहुत कोषा। धृतराष्ट्र ने माता गांधारी को पीड़ा देने के लिए उनकी सबसे प्रिये दाशी के साथ सम्बन्ध बना लिए।

उसी वक़्त महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर पहुंचे और मास के टुकड़े की जाँच की और कहा की भगवान् शिव का वरदान अटल है वो कभी गलत नहीं हो सकता  अतः ये जो मास का टुकड़ा माता गांधारी के गर्व से हुआ है वो आपके 101 संतानो का बीज है। माता गांधारी ने भगवान् शिव से एक पुत्री की भी मांग की थी सो आपके 100 पुत्र और 1 पुत्री के बीज है इस मांस के टुकड़े में। महर्षि वेद व्यास ने 101 घरो का इंतजाम किया और उसके अंदर गर्व जैसा वातावरण बना का उन बीजो को घरे में डाल दिया, इस प्रकार से जिस पुत्र ने पहले जान लिया उसका ना दुर्योधन रखा गया उसके बाद क्रमसः 99 पुत्रो का जन्म हुआ और 1 पुत्री जिसका नाम दुशाला रखा गया। चुकी धृतराष्ट्र ने दाशी से भी सम्बन्ध बना लिए थे सो धृतराष्ट्र को दाशी से भी एक पुत्र की प्राप्ति होती है। 

इस प्रकार से कौरवो की संख्या 102 हुई जिसमे उनकी एक बहन भी थी।

पाण्डु का विवाह, पाण्डु की मृत्यु तथा 5 पांडवो का जन्म :
धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे. अतः पाण्डु को ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाया गया जिसके कारण धृतराष्ट्र को हमेशा ही अपने नेत्रहीनता पर क्रोध आता था और उनका ये क्रोध कब अपने छोटे अनुज के लिए द्वेषभावना बन गयी उनको भी नहीं पता चला बहरहाल जो भी हो पाण्डु जब राजा बने तो उन्होंने कुछ ही समय में सम्पूर्ण भारतवर्ष को जीतकर कुरु राज्य की सीमाओं का यवनो के देश तक विस्तार कर दिया। कुछ वर्षो पश्चात् पाण्डु की शादी कुंती तथा माद्री से हुई।

एक बार राजा पाण्डु अपने दोनों पत्नियाँ कुन्ती तथा माद्री के साथ आखेट के लिए वन में गए, वहाँ उन्होंने एक मृग का मैथुनरत जोड़ा देखा। पाण्डु ने तत्काल ही अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया, मरते हुए मृगरुपधारी किन्दम ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया की हे राजन ! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा, तुमने जैसे मुझे मैथुन के वक़्त बाण मारा है वैसे ही जब कभी तूम अपनी पत्नी या किसी स्त्री के साथ मैथुनरत होगा उसी वक़्त तेरी मृत्यु हो जायेगी। इस शाप से पाण्डु काफी दुखी हुए और अपनी पत्नियों से बोले, हे देवियों ! अब मै अपनी समस्त वासनाओ का त्याग करके इस वन में अपनी बाकी की जा जीवन गुजारुंगा अतः आपसे निवेदन है की आप मेरे बिना ही हस्तिनापुर को लौट जाये। इसपर दोनों रानियों ने दुःख भरे स्वर में कहा की, हे नाथ ! हम आपके बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकती, अतः आप हमें भी वन में अपने साथ रहने की अनुमति देकर हमपर कृपा करे। पाण्डु ने अपनी पत्नियों के अनुरोध को मान लिया और उनको वन में रहने की अनुमति देदी।

इसी दौराण राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन कुछ ऋषि-मुनियो को ब्रम्हा जी के दर्शन के लिए जाते देखा। पाण्डु ने ऋषि-मुनियो से स्वयं को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया, उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियो ने कहा, हे राजन ! कोई भी निःसंतान पुरुष ब्रम्हलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता, अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ है। ऋषि-मुनियो की बात सुनकर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले की, हे कुन्ती ! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है, क्युकी संतानहिन् व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिए मेरी सहायता कर सकती हो ? कुंती ने इसपर उत्तर देते हुए कहा की, हे आर्यपुत्र ! दुर्वासा ऋषि ने मुझे एक ऐसा मन्त्र प्रदान किया था जिसके आह्वान से मै मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ, आप आज्ञा करे मई किस देवता को बुलाऊँ। इसपर पाण्डु ने धर्म को आमंत्रित करने का आदेश दिया, धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती  को पुनः दो बार वायु देव तथा इंद्रदेव को आमंत्रित करने की आज्ञा दी, इस प्रकार से वायुदेव से भीम और इंद्रदेव से अर्जुन की उत्पति हुई। तत्पश्चात पाण्डु की आज्ञा से कुंती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी, जिसके बाद माद्री ने अश्विनीकुमारो को आमंत्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

पुत्रो के जन्म पश्चात एक दिन पाण्डु माद्री के साथ वन में शारिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे, वातावरण काफी रमणीक था और शीतल मन-शुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोके से माद्री का वस्त्र उड़ गया, जिससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वो मैथुन के लिए माद्री की और बढे। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन पाण्डु खुद को नहीं रोक पाए और किन्दम ऋषि के शाप अनुसार उनकी उसी वक़्त मृत्यु हो गयी। माद्री ने पाण्डु के मृत्यु के लिए खुद को दोषी ठहराया और वो भी पाण्डु के साथ सती हो गयी, किन्तु कुंती अपने पाँच पुत्रो के पालन-पोषण के लिए हस्तिनापुर लौट आई।

कुन्ती के पुत्र -

  • युधिष्ठिर 
  • भीम 
  • अर्जुन 
माद्री के पुत्र -

  • नकुल
  • सहदेव 
भीम के अंदर दस हजार हाथियों का बल :
कौरव और पांडव जब थोड़े बारे हुए तो उनकी सिक्छा कृपाचार्य की देख रेख में होने लगी। गुरुकुल में पांडवो और कौरवो के बिच थोड़ा भी मेल मिलाप नहीं था, दुर्योधन धृतराष्ट्र का जेष्ठ पुत्र होने के कारण खुद को राज्य का उत्तराधिकारी मानता था और पांडवो से ईर्ष्या करता था। दुर्योधन को भीम से कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या थी क्युकी भीम कौरवो को खूब सताता था। एक दिन दुर्योधन ने भी को मारने की योजना बनाई और जल क्रीड़ा के बहाने भीम को गंगातट पर ले गया। दुर्योधन ने गंगा तट पर भीम को भोजन में विष मिलाकर खिला दिया और जब भीम अचेत होकर गिर परे तो दुर्योधन ने भीम को लताओं से बांधकर गंगा में बहा दिया। भीम मूर्छित अवस्था में ही नागलोक पहुँच गए, वहाँ सर्पों ने भीम को खूब डसा जिसके कारण विष का प्रभाव ख़त्म हो गया। जब भी को होश आया तो सर्पों को मारने लगे, सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए, उनके साथ आर्यक नाग भी थे। आर्यक नाग ने भीम को देखते ही पहचान लिया, आर्यक नाग भीम के नाना के नाना थे। आर्यक नाग भीम से बारे प्रेम से मिले और वासुकि से कहा की भीम को उन कुंडो का रस पिने की आज्ञा दी जाये जिनमे दस हजार हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी, जिसके बाद भीम ने आठ कुंड पिए और एक दिव्ये सय्या पर सो गए।

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेक दिया तो उसे बारे हर्ष हुआ। शिविर समाप्त होने के बाद सभी कौरव और पांडव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हुए। पांडवो ने सोचा की भीम आगे चले गए होंगे लेकिन जब वो हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुन्ती से भी के बारे में पूछा, तब माता कुंती ने भीम के नहीं लौटने की बात कही। साड़ी बात जानकर माता कुन्ती व्याकुल हुई और विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा, तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिको को भीम कोखोज्ने के लिए भेजा।

उधर नागलोक में भीम आठवे दिन रस पच जाने पर जागे, तब नागो ने भीम को गंगा नदी के तट पर छोर दिया और भीम सही सलामत हस्तिनापर पहुंचे जिसके बाद सभी को बड़ा संतोष हुआ। भीम ने साड़ी बात माता कुंती व अपने भाइयो को बताई और कैसे वो नागलोक पहुंचे और वहाँ क्या-क्या हुआ सब बताया, जिसके बाद युधिष्ठिर ने भी से ये बात किसी को न कहने के लिए कहा।  


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