Default Image

Months format

View all

Load More

Related Posts Widget

Article Navigation

Contact Us Form

404

Sorry, the page you were looking for in this blog does not exist. Back Home

Ads Area

बिहार के वोटर सावधान, चुनावी हिंदुत्व का ढोंग और जनता से धोखा :

भारतीय राजनीति में धर्म और आस्था हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आस्था को कई बार नेताओं ने केवल वोट बैंक की राजनीति का हथियार बना दिया। राम मंदिर जैसी सदियों पुरानी आस्था को लंबे समय तक राजनीति का विषय बनाकर रखा गया और अब चुनाव आते ही वही नेता जो राम मंदिर तक नहीं जाते, अचानक जानकी मंदिर पहुँचकर धार्मिक दिखावा करने लगते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या यह सच्ची आस्था है या फिर केवल सत्ता का खेल? इस लेख में हम इसी विषय पर गहराई से चर्चा करेंगे।

══

1. आस्था और राजनीति का टकराव

भारत की संस्कृति और परंपरा में मंदिर, पूजा और धर्म का स्थान बेहद पवित्र रहा है। लेकिन आज के समय में आस्था को राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगा है। नेताओं के लिए मंदिर जाना, पूजा करना और धार्मिक कार्यक्रमों में भाग लेना चुनावी मौसम का हिस्सा बन चुका है। यह स्थिति तब और स्पष्ट हो जाती है जब कुछ नेता, जो आम दिनों में धार्मिक स्थलों से दूरी बनाए रखते हैं, अचानक चुनावी मौसम में मंदिरों की परिक्रमा शुरू कर देते हैं। इससे साफ़ झलकता है कि आस्था उनके लिए एक निजी भावना नहीं बल्कि वोट बटोरने की रणनीति बन चुकी है। यह प्रवृत्ति भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है क्योंकि इससे न केवल धर्म का अपमान होता है बल्कि जनता के साथ भी धोखा होता है।

══

2. राम मंदिर का बहिष्कार और जानकी मंदिर का दौरा

राम मंदिर, जो करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है, उसमें न जाने वाले नेता जब बिहार चुनाव आते ही जानकी मंदिर का दौरा करते हैं, तो सवाल उठना लाज़मी है। आखिर वह कौन सी वजह है जो उन्हें राम मंदिर से दूर रखती है लेकिन चुनाव आते ही जानकी मंदिर के रास्ते पर खड़ा कर देती है? यह दर्शाता है कि उनके लिए मंदिर जाना किसी धार्मिक कर्तव्य का पालन नहीं, बल्कि चुनावी नाटक का हिस्सा है। यह "चुनावी हिंदू" की पहचान है। ऐसे नेता जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे धर्मनिष्ठ हैं, जबकि असलियत में उनका मकसद केवल वोट बटोरना होता है। जनता को इस ढोंग को पहचानना चाहिए।

══

3. चुनावी हिंदुत्व की परिभाषा

"चुनावी हिंदुत्व" शब्द का इस्तेमाल ऐसे नेताओं के लिए किया जाता है जो हिंदू धर्म और आस्था को केवल चुनावी फायदा पाने के लिए उपयोग करते हैं। इन नेताओं की पहचान यह होती है कि चुनाव के पहले वे धार्मिक आयोजनों में सक्रिय हो जाते हैं, मंदिरों की यात्रा करते हैं और बड़े-बड़े धार्मिक वादे करते हैं। लेकिन जैसे ही चुनाव समाप्त होते हैं, उनकी धार्मिकता भी गायब हो जाती है। यह व्यवहार न केवल आस्था का अपमान है बल्कि करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ भी है। चुनावी हिंदुत्व की असलियत यह है कि यह राजनीति की प्रयोगशाला में तैयार किया गया एक नाटक है, जिसका असली मकसद जनता को भ्रमित करना होता है।

══

4. जनता को धोखा देने की रणनीति

राजनीति में जनता की भावनाओं को नियंत्रित करना सबसे आसान रास्ता है। आस्था और धर्म जनता के दिल के बेहद करीब होते हैं। इसलिए नेता इन्हें निशाना बनाकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करते हैं। जब कोई नेता अचानक मंदिरों की शरण लेता है, तो उसका उद्देश्य आस्था का सम्मान नहीं बल्कि जनता को प्रभावित करना होता है। यह एक सोची-समझी साजिश होती है ताकि जनता यह मान ले कि नेता धार्मिक है और उसके साथ खड़ा है। लेकिन हकीकत में यह केवल दिखावा होता है। इस तरह जनता को बार-बार धोखा दिया जाता है।

══

5. असली आस्था बनाम चुनावी आस्था

आस्था एक निजी भावना है, जिसे किसी राजनीतिक मंच या चुनावी मौसम से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। असली आस्था दिल में बसती है और व्यक्ति के आचरण में झलकती है। लेकिन चुनावी आस्था का मकसद केवल प्रचार और वोट होता है। असली आस्था में व्यक्ति सच्चाई और ईमानदारी से धार्मिक परंपराओं का पालन करता है, जबकि चुनावी आस्था केवल मंच और मीडिया कैमरों तक सीमित होती है। जनता को इस फर्क को पहचानना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि अगर वह चुनावी आस्था के जाल में फँसी तो उसे बार-बार ठगा जाएगा।

══

6. मीडिया की भूमिका

मीडिया भी चुनावी हिंदुत्व को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाता है। जब कोई नेता मंदिर जाता है, तो मीडिया इसे बड़े-बड़े हेडलाइन बनाकर दिखाता है। जनता को यह संदेश जाता है कि नेता धार्मिक और आस्थावान है। जबकि असलियत यह है कि मीडिया भी इस नाटक का हिस्सा बन जाता है। यदि मीडिया ईमानदारी से काम करे, तो वह यह उजागर कर सकता है कि कौन नेता सच्चा है और कौन केवल चुनावी हिंदू है। लेकिन जब मीडिया भी प्रचार तंत्र का हिस्सा बन जाए, तो जनता को सच तक पहुँचना मुश्किल हो जाता है।

══

7. जनता की जिम्मेदारी

लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी ताकत होती है। यदि जनता चाह ले, तो चुनावी हिंदुत्व जैसे ढोंग कभी सफल नहीं हो सकते। लेकिन इसके लिए जनता को जागरूक और सतर्क रहना होगा। उसे नेताओं की हरकतों और आचरण पर ध्यान देना होगा। कौन नेता चुनाव के समय मंदिर जाता है और कौन रोज़मर्रा में धर्म का पालन करता है, इसका फर्क समझना होगा। अगर जनता अंधभक्ति छोड़कर सच्चाई पर ध्यान देगी, तो चुनावी हिंदू नेताओं का नकाब उतर जाएगा।

══

8. धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग

धर्म और आस्था को राजनीतिक फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल करना एक तरह से धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग है। मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा किसी भी राजनीतिक पार्टी का प्रचार मंच नहीं होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश राजनीति ने धार्मिक स्थलों को भी चुनावी हथियार बना दिया है। इसका नतीजा यह है कि आस्था कमजोर पड़ने लगती है और लोगों का विश्वास भी डगमगाने लगता है। धार्मिक स्थलों का दुरुपयोग न केवल समाज को बाँटता है बल्कि लोकतंत्र को भी कमजोर करता है।

══

9. सच्ची आस्था की पहचान

सच्ची आस्था की पहचान यह है कि वह व्यक्ति के जीवन और कर्मों में दिखाई देती है, न कि केवल मंच पर या चुनाव के समय। एक सच्चा आस्थावान व्यक्ति हर परिस्थिति में धर्म का पालन करता है और अपने कर्मों से समाज को प्रेरणा देता है। चुनावी हिंदू नेता इसके विपरीत केवल कैमरे और भाषणों के जरिए आस्था का प्रदर्शन करते हैं। जनता को इस अंतर को पहचानना चाहिए। सच्ची आस्था की पहचान करने से ही चुनावी ढोंग करने वाले नेता बेनकाब होंगे।

══

10. निष्कर्ष – जागरूक जनता ही समाधान

आस्था का राजनीतिकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, तब तक चुनावी हिंदुत्व का ढोंग चलता रहेगा। जनता को यह समझना होगा कि मंदिर में जाकर फोटो खिंचवाने से कोई नेता धार्मिक नहीं बन जाता। धर्म का सम्मान करना है तो उसे रोज़मर्रा के जीवन में दिखाना होगा। इसलिए यह समय है कि जनता ऐसे नेताओं को पहचानें और उन्हें राजनीतिक मंच से दूर रखें। केवल जागरूक और सजग जनता ही इस ढोंग को खत्म कर सकती है और धर्म का असली सम्मान कर सकती है।

══


👉 शेयर जरूर करें