जम्मू-कश्मीर का पहलगाम, जो कभी अपनी खूबसूरती, शांति और पर्यटन के लिए जाना जाता था, अब एक दर्दनाक त्रासदी का गवाह बन चुका है। हाल ही में जो घटना वहां घटी, उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। 27 निर्दोष लोगों को बेरहमी से मार दिया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे हिंदू थे, या वे पीड़ित हिंदुओं की मदद कर रहे थे। इस दर्दनाक हमले ने न केवल कई परिवारों को उजाड़ दिया, बल्कि एक बार फिर हमारे देश को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आतंकवाद का असली चेहरा क्या है।
धर्म नहीं पूछा गया, जाति नहीं देखी गई – सिर्फ नाम देखा गया
आतंकियों ने न किसी की जाति पूछी, न भाषा, न राज्य और न ही राजनीतिक विचारधारा। उन्होंने सिर्फ और सिर्फ नाम पूछा। नाम से अगर कुछ भ्रम हुआ, तो शारीरिक परीक्षण किया गया—यह देखने के लिए कि खतना हुआ है या नहीं। और यदि नहीं हुआ, तो व्यक्ति को वहीं गोलियों से भून दिया गया।
यह घटना साफ़ बताती है कि आतंकियों का मकसद किसी सामाजिक या राजनीतिक भेदभाव के खिलाफ नहीं, बल्कि एक पूरे धर्म विशेष के लोगों के विरुद्ध हिंसा फैलाना था। यह एक योजनाबद्ध नरसंहार था, जिसमें सिर्फ धर्म के आधार पर लोगों को मारा गया।
जातिवाद, भाषावाद और प्रांतवाद – ये भ्रम कब टूटेंगे?
हम अक्सर राजनीति, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर बंट जाते हैं। चुनाव आते ही हम पंडित, यादव, बनिया, जाटव, मराठी, बिहारी, तमिल, बंगाली बन जाते हैं। लेकिन जब बंदूकधारी आतंकवादी सामने खड़ा होता है, तब वह न आपकी जाति देखता है, न आपकी भाषा—वह सिर्फ यह देखता है कि आप हिंदू हैं या नहीं।
यह समय है कि हम आत्ममंथन करें। क्या हम अब भी जातिवाद का खेल खेलते रहेंगे? क्या अब भी हम अपने भाइयों को सिर्फ उनकी जाति या भाषा के आधार पर पहचानेंगे? यह भेदभाव हमें अंदर से कमजोर कर रहा है, और हमारे दुश्मन इसका फायदा उठा रहे हैं।
राजनीति की चुप्पी और बुद्धिजीवियों की खोखली बातें
हर बार जब ऐसा कोई हमला होता है, तब कुछ नेता सिर्फ ट्वीट करके अपना फर्ज निभा देते हैं। कुछ बुद्धिजीवी टीवी चैनलों पर बैठकर "आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता" जैसी बातें करते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब धर्म के आधार पर लोगों की हत्या होती है, तब ऐसे बयानों का कोई मतलब नहीं रह जाता।
यह हमला किसी विचारधारा के खिलाफ नहीं था, यह हमला एक धर्म के खिलाफ था। जब तक हम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक हम ना तो खुद को सुरक्षित रख पाएंगे, और ना ही समाज को।
एकता ही हमारी ताकत है
यह समय है कि हम हिंदू समाज के रूप में एकजुट हों। जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद छोड़कर सनातन धर्म के मूल तत्व – एकता, सहिष्णुता और आत्मरक्षा – को अपनाएं। अगर धर्म बचेगा, तो हमारी संस्कृति, हमारी भाषा और हमारी पहचान बचेगी।
हिंदू होने का अर्थ यह नहीं कि हम दूसरों के खिलाफ खड़े हों, बल्कि इसका मतलब है कि हम अपने अंदर एकजुटता और आत्मसम्मान की भावना रखें। यह लड़ाई किसी जाति, दल या क्षेत्र की नहीं, बल्कि अस्तित्व की है।
क्या सबक लेना चाहिए?
- पहला: हमें अपने धर्म को पहचानना और सम्मान देना होगा।
- दूसरा: जाति-भाषा-प्रांत से ऊपर उठकर एकजुट होना होगा।
- तीसरा: सेक्युलरिज्म के नाम पर आंखें मूंदना बंद करना होगा और आतंक के खिलाफ स्पष्ट रुख अपनाना होगा।
- चौथा: हमें अपने नेताओं से सख्त सवाल पूछने होंगे – कि निर्दोषों की हत्या पर वे चुप क्यों हैं?
- पांचवां: हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को जागरूक बनाना होगा कि धर्म के प्रति सजग रहना कोई नफरत नहीं, बल्कि आत्म-संरक्षण है।
श्रद्धांजलि और प्रार्थना
हम पहलगाम के उन 27 शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जिन्होंने सिर्फ इसलिए अपनी जान गंवाई क्योंकि वे हिंदू थे या उन्होंने मदद करने की कोशिश की थी। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवारों को यह दुःख सहने की शक्ति प्रदान करे।
साथ ही, हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे समाज के सेक्युलर हिंदू भाइयों को भी सद्बुद्धि प्राप्त हो, ताकि वे अपने धर्म की असली ताकत और ज़िम्मेदारी को समझ सकें।
अंतिम विचार
जहां धर्म है, वहीं विजय है। यह वाक्य केवल एक कथन नहीं, बल्कि आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। यदि हम अपने धर्म की रक्षा करेंगे, तो हमारा अस्तित्व, हमारी जाति, भाषा और संस्कृति सब सुरक्षित रहेंगे। लेकिन यदि हम विभाजित रहे, तो हम एक-एक कर खत्म होते जाएंगे—जैसे पहलगाम में हुआ।
अब समय है एकजुट होने का। समय है जागने का। और समय है, इस सच्चाई को आगे बढ़ाने का।