अपने ही देश में पलायन करते हिंदू: कब तक, क्यों और कहां तक?
- पाकिस्तान से पलायन
- बांग्लादेश से पलायन
- कश्मीर से पलायन
- बंगाल से पलायन
- मुर्शिदाबाद से पलायन
- सीलमपुर से पलायन
- कैराना से पलायन
- भोपाल से पलायन
- कुशीनगर से पलायन
- बल्लभगढ़ से पलायन
- बिजनौर से पलायन
- अमरोहा से पलायन
- गिरिडीह से पलायन
- गाजीपुर से पलायन
- मोरीगांव से पलायन
हर एक नाम एक चीख है। ये केवल स्थान नहीं हैं, ये उस पीड़ा की निशानियाँ हैं जहाँ हिंदू समुदाय ने अपने ही देश में असुरक्षा की भावना के चलते अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। सवाल उठता है—कब तक हिंदू पलायन करेगा? कहां तक पलायन करेगा? और क्यों करना पड़े उसे अपने ही देश में पलायन?
पलायन कोई सरल निर्णय नहीं होता। जब कोई व्यक्ति अपने पुश्तैनी घर, अपने खेत-खलिहान, अपनी यादों और परंपराओं से भरे आंगन को छोड़ता है, तो यह केवल एक भौगोलिक बदलाव नहीं होता—यह उसकी अस्मिता, उसकी पहचान, और उसकी सुरक्षा की लड़ाई बन जाती है।
कश्मीर से लेकर कैराना तक, मुर्शिदाबाद से लेकर मोरीगांव तक—इन सब स्थानों की एक ही कहानी है। कहीं धार्मिक उन्माद के कारण, कहीं सांप्रदायिक दंगों के बाद, कहीं स्थानीय प्रशासन की निष्क्रियता से, तो कहीं वोट बैंक की राजनीति के चलते—हिंदू परिवारों को पलायन करना पड़ा।
क्या यह वही भारत है, जहाँ 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना से सबको अपनाने की बात होती है? क्या यह वही देश है, जहाँ सबको समान अधिकार की गारंटी दी गई है? अगर हाँ, तो फिर ये सिलसिला क्यों नहीं रुकता?
राजनीतिक दलों के लिए ये केवल आंकड़े हैं। लेकिन ज़मीन पर ये ज़िंदगी के उजड़ने की कहानियाँ हैं। कैराना में जब हिंदू व्यापारी अपना व्यवसाय छोड़कर पलायन कर रहे थे, तब प्रशासन मौन था। कश्मीर घाटी से जब कश्मीरी पंडितों को भागना पड़ा, तब देश उदासीन था। और अब यही कहानी अलग-अलग हिस्सों में दोहराई जा रही है।
हिंदू समुदाय को केवल अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि कई बार बहुसंख्यक होकर भी असुरक्षित महसूस करना पड़ रहा है। यह स्थिति केवल सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह कानून-व्यवस्था, प्रशासनिक निष्क्रियता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का संकेत है।
हमें अब यह सवाल पूछना ही होगा—हिंदू आखिर कब तक भागेगा? क्या यह देश केवल कागजों में उसका है? क्या उसकी संस्कृति, उसकी पहचान, उसके अधिकार अब गारंटीशुदा नहीं रहे?
समाधान क्या है? सबसे पहले, हर नागरिक की सुरक्षा को प्राथमिकता देना होगा—चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से हो। लेकिन विशेष रूप से उन क्षेत्रों में ध्यान देना होगा जहाँ सांप्रदायिक तनाव के चलते एक विशेष वर्ग को पलायन करना पड़ रहा है।
दूसरा, प्रशासन और न्याय व्यवस्था को मज़बूत करना होगा ताकि किसी को भय में जीने की ज़रूरत न हो।
तीसरा, हमें समाज में वह चेतना और संवाद लाना होगा जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि कोई भी समुदाय, बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, असुरक्षित महसूस न करे।
हिंदुओं को अब जागना होगा। यह देश उनका भी उतना ही है जितना किसी और का। उन्हें न तो डरकर जीना चाहिए, न पलायन करना चाहिए। समय आ गया है कि आवाज उठे—शांतिपूर्वक, पर मजबूती से—कि अब और नहीं।
अब और नहीं।
कभी नहीं।
यहीं रहेंगे, यहीं जिएंगे। और यहीं लड़ेंगे—अपने हक़ के लिए।