21 जून 1940 को दो दिग्गज 'सुभाष चंद्र बोस' और 'वीर सावरकर' ने फॉरवर्ड ब्लॉक और हिंन्दू महासभा के बीच सहयोग की संभावनाओं को तलाशने के लिए दादर, मुंबई में मंच साझा किया।
‘नेताजी 'सावरकर' की रचनाओं के प्रशंसक थे। सावरकर ने बोस को सलाह दी कि वे कलकत्ता में होलवेल स्मारक की तरह ब्रिटिश प्रतिमाओं को हटाने जैसे आंदोलन में समय बर्बाद न करें, इसका परिणाम केवल यह होगा कि सुभाष बाबू को किसी ब्रिटिश जेल में डाल दिया जाएगा, जबकि सुभाष चंद्र बोस के लिए यह समय अमूल्य था।
सावरकर जापान में क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के संपर्क में थे। उन्होंने इस बात की वकालत की कि सुभाषचंद्र बोस को रासबिहारी बोस की तरह देश से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए और जर्मनी और जापान तक पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए और वहां कोई सशस्त्र सेना खड़ी करने का प्रयास करना चाहिए। सावरकर की सलाह पर ही रासबिहारी बोस ने सुभाष बाबू से पत्र व्यवहार किया।
सावरकर और सुभाष की इस मुलाकात ने सुभाषचंद्र बोस के जीवन को ही बदल दिया...। 25 जून 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के दौरान नेताजी बोस ने भारतीय युवाओं की सैन्य भर्ती को बढ़ाने के लिए सावरकर के प्रयासों की सराहना की थी। सिंगापुर से आज़ाद हिंद फ़ौज के रेडियो प्रसारण में सुभाष बाबू ने कई बार वीर सावरकर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।