आप लोगों के लिए यह विश्वास करना कठिन होगा कि ईरान में लगी चिंगारी की आग कश्मीर तक पहुँची थी जिसमें कश्मीरी पंडित झुलसे थे। कुछ मुल्ले झूठ फैलाते रहे हैं कि बीजेपी राज के दौरान कश्मीर घाटी से हिंदुओं को भगाया गया... जब की सच्चाई ये है की 12 जुलाई 1989: जब 72 आतंकियों को रिहा करने की सजा जम्मू कश्मीर को भुगतनी पड़ी थी। कश्मीरी पंडितों के मुताबिक, 300 से ज्यादा लोगों को 1989-1990 में मारा गया।
सामूहिक हत्याकांड शुरू हुआ :
दिसंबर 1989 तक राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे और 2 जनवरी 1989 को कश्मीर घाटी में 10 पंडितों का एक साथ मारने के साथ कश्मीरी पंडितों का सामूहिक हत्याकांड शुरू हुआ। उसके बाद भारत का गृहमंत्री मुस्लिम मुफ्ती मोहम्मद सईद बना फिर उसने चुन चुन कर कश्मीर घाटी से हिंदुओं का सफाया कर दिया। किसी भी राज्य में अवांछनीय, आपराधिक और आतंकी तत्व अकारण ही नहीं पनपते। ऐसे तत्वों को शासन द्वारा शह मिलने पर ही लंबे समय तक हिंसक गतिविधियाँ जारी रहती हैं।
जम्मू कश्मीर राज्य भी कोई अपवाद नहीं। दुर्भाग्य से यहाँ लंबे समय तक अब्दुल्ला परिवार का शासन रहा और उल्लेखनीय है कि 1989 में जब आतंकी गतिविधियाँ चरम पर थीं तब फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे और कांग्रेस का समर्थन था और राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे।
यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया थी :
कश्मीर घाटी में जब पंडितों का नरसंहार प्रारम्भ हुआ तो यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया थी कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं। सन 1984 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापकों में से एक मकबूल बट को फांसी दी जा चुकी थी और 1986 में अनंतनाग में दंगे हो चुके थे। उसके पश्चात धीरे धीरे स्थिति बिगड़ती गयी। सन 1989 में पूरे विश्व में सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटेनिक वर्सेज़’ का विरोध चरम पर था जिसकी आग कश्मीर तक भी पहुँची; हालाँकि इस चिंगारी का स्रोत ईरान में था।
साल १९८९ में मुस्लिम मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबैया सईद का अपहरण कर लिया गया था। रुबैया के बदले में आतंकवादियों ने अपने पांच साथियों को मुक्त करवा दिया था।
ईरान में लगी चिंगारी की आग कश्मीर तक :
आज कुछ लोगों के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि ईरान में लगी चिंगारी की आग कश्मीर तक पहुँची थी जिसमें कश्मीरी पंडित झुलसे थे। परिणामस्वरूप 13 फरवरी को श्रीनगर में दंगे हुए जिसमें कश्मीरी पंडितों को बेरहमी से मारा गया। कश्मीरी पंडित कराहते रहे और पूछते रहे कि रुश्दी के अल्फाजों का बदला उनकी आवाज खत्म कर क्यों लिया जा रहा है, लेकिन पंडितों की सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था। पंडितों के संहार और दंगों के समय राज्य सरकार और उनके सहयोगी दल अलगाववादियों के सम्मुख भीगी बिल्ली बन जाते थे।
आतंकियों को कैद से रिहा करने का फैसला :
जुलाई आते आते हालात और बिगड़ चुके थे। गवर्नर जगमोहन लगातार केंद्र को परिस्थितियों से अवगत करा रहे थे लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। घाटी में जमात ए इस्लामी की शह पर पाकिस्तान परस्त तत्व बढ़ते जा रहे थे। बम ब्लास्ट और लूटपाट की घटनाएँ आम बात थी। युवाओं में अलगाववाद और आतंकवाद का बीज बोया जा चुका था। 11 जुलाई 1989 को जगमोहन के गवर्नर पद से हटने के बाद अगले ही दिन 12 जुलाई को राज्य सरकार ने 72 आतंकियों को कैद से रिहा करने का फैसला लिया।
घाटी छोड़कर पलायन करना :
इसका परिणाम वह हुआ जो किसी ने सोचा नहीं था। अवांछनीय तत्वों को रिहा करने के एक ही दिन बाद 13 जुलाई को सी आर पी एफ पर पहली बार संगठित रूप से हमला किया गया। इसके बाद अपराध और खून खराबे की एक शृंखला बन गई। अगस्त में नेशनल कांफ्रेंस का नेता युसूफ हलवाई मारा गया। सितंबर में पंडित टिकालाल टपलू की हत्या हुई। 4 नवंबर को हाई कोर्ट के जज नीलकंठ गंजू को दिनदहाड़े मार दिया गया। इसके बाद दिसंबर में रुबैया सईद के अपहरण हुआ। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जैसे आतंकी संगठनों के खूनी खेल के चलते अगले ही साल न जाने कितने कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़कर पलायन करना पड़ा।