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नेहरू और वामपंथ द्वारा भारत में साहित्य और समाज का नुकसान?

जिनकी उम्र पचास का आकड़ा पार कर चुकी है उन्हें याद होगा को साठ के दशक में रूस से बेहद सस्ती किताबें आती थीं! अब रूस ने कोई धर्मशाला तो खोली नहीं थी! वो इन सस्ती किताबो की अच्छी कीमत देश समाज से अलग ढंग से वसूल रहा था! और ऐसा करने के लिए  रास्ता दिया था कामरेड नेहरू ने! नेहरू की जीवनशैली पूंजीवादी थी मगर विचारधारा एक कट्टर वामपंथी की थी!

इस तरह वो टू इन वन थे! उन्हें दोनों गुट का मजा लेना था, इसलिए उन्होंने विश्व की दोनो महाशक्तियाँ के बीच में अपना एक गुटनिरपेक्ष समूह खड़ा कर दिया! गुटनिरपेक्ष के प्रारंभिक दौर को ध्यान से देखें तो  यहां इस आंदोलन को स्थापित करने वाले राजनेताओं का उद्देश्य अपने अपने राष्ट्र को लाभ पहुंचाने से अधिक स्वयं को अपने देश में राजनैतिक रूप से स्थापित करना था! अर्थात इन सब का व्यक्तिगत हित साधना ही प्रमुख उद्देश्य नजर आएगा! और नेहरू ने अपने दूरगामी राजनैतिक फायदे को देखते हुए  वामपंथियों के लिए भारत के दरवाजे खोल दिए!

उन दिनों, ७०० साल की गुलामी के कारण भारत में गरीबी थी! गुलाम देश को गरीब बनाना बेहद आसान है! वरना भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था इतनी आत्मनिर्भर थी की कोई भूखा नहीं होता था और गरीब गरीबी का अस्तित्व नहीं था! क्या होता है गरीब गरीबी? जिसके पास आधुनिक साधन सुविधा ना हो! लेकिन सनातन समाज में तो ऋषि मुनि साधन विहीन होते थे या यूं कहें कि साधनसम्पन्न ना होना ही साधू होने की पहली शर्त होती थी! मगर इन गरीब ब्राह्मण का स्थान समाज में शीर्ष पर था और शक्तिशाली राजा को भी समय समय पर इनकी कुटिया में नतमस्तक होना पड़ता! 

हमारे पूर्वजों ने ऐसी अद्भुत सामाजिक व्यवस्था बनाई थी! अर्थात हमारे जीवन दर्शन में गरीबी को लेकर दृष्टिकोण ही भिन्न था! मगर भूख और भिखारी का कोई अस्तित्व नहीं था!

एक अति समृद्ध देश में, पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों ने, यहां की आर्थिक व्यवस्था पर चोट मार कर कई वर्गों का काम छीन कर उन्हें भुखमरी के स्तर तक पहुंचा दिया! एक दुसरे पर निर्भर हिन्दू समाज की आतंरिक व्यवस्था को छिन्नभिन्न कर दिया गया! इसे समझने के लिए यह उदाहरण उचित होगा की हिन्दुस्तान के गांव वर्षों तक इस गरीबी और भूखमरी के शिकार नहीं थे! और समाज का सबसे बड़ा विभाजन कलकत्ता में देखा जा सकता था जो अंग्रेजों की राजधानी लम्बे समय तक थी! वहाँ अगर पूंजीपति फलफूल रहे थे तो मजदूरों की संख्या  भी कीड़ेमकोड़ों की तरह तेजी से चारो और फ़ैल रही थी! 

यह वामपंथ के लिए सबसे उर्वरक राजनैतिक जमीन थी! और इसलिए सबसे लम्बे समय तक यही पर इन वामपंथियों ने राज किया! चूंकि इन वामपंथियों की राजनीति गरीबी पर निर्भर है इसलिए इनके शासन काल में कलकत्ता में गरीबों की कई पीढ़ी खड़ी कर दी गई! 

बहरहाल, हम पोस्ट के मुख्य मुद्दे पर आते हैं! कामरेड नेहरू ने देश का बौद्धिक क्षेत्र वामपंथियों को ठेके पर दे दिया! अब ठेके को देने लेने में कितना और क्या चलता है यह हम सब जानते हैं! ठेका मिलने के बाद वामपंथियों ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों में अपनी विचारधारा के लोगों को स्थापित करना शुरू किया! और फिर धीरे धीरे इन लोगों ने देश के सभी विशिष्ट शैक्षणिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया! किताबो और स्कूल कॉलेज के कोर्स भी इन विचारधाराओं के द्वारा बनाये जाने लगे! धीरे धीरे पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर ही लेखक भी बन गए! और उन्होंने अपना पाठक बनाया अपने निरीह छात्रों को! 

आप पाएंगे पिछली कई सदी में अधिकांश हिंदी के लेखक शिक्षण संस्था से ही जुड़े मिलेंगे! इस तरह शिक्षक और छात्र, लेखक और पाठक भी बन गए! इस तरह से लेखन और शिक्षण हर तरफ इनका कब्जा हो गया! अब अगर कोई शिक्षक, चाहे जो लिखे, कोई छात्र इस पर कुछ कह तो सकता नहीं! ऐसे में प्रोफ़ेसर और लेखक ने घेर कर छात्रों के बौद्धिक क्षेत्र में बुरी तरह घुसपैठ की! जो भी कचरा इनके द्वारा लिखा गया वही कचरा पढ़ाया गया और इस तरह से एक तरफ जहां छात्रों का दिमाग कचरे का घर बना दिया गया वहीं हिंदी साहित्य कचरे का ढेर बनता गया और आम जन से दूर होता चला गया!
 
यही छात्र जब पढ़ लिख कर बाहर निकला तो वो कैसा नागरिक बनेगा उसकी सहज कल्पना की जा सकती है! क्योंकि हर क्लास में सामान्य छात्रों का ही प्रतिशत अधिक होता है, जिन्हे किताब में जो लिखा है या मास्टर ने जो पढ़ाया है वही उनके लिए पत्थर की लकीर बन जाता है!  ऐसे में धीरे धीरे देश में ऐसे नागरिकों की फौज खड़ी हो गई, जिन्हे राष्ट्रवाद और राष्ट्रगान पर बहस करना और बहस को सुनना अटपटा नहीं लगता! यही छात्र समाज के हर क्षेत्र में जाकर वही सब परोसते हैं जो उनके मन मष्तिष्क में स्कूल के दिनों से भर दिया गया था! आखिर आज का छात्र ही कल का नागरिक है! और वामपंथ ने आज के छात्र को पिछले सत्तर साल में जो कचरा पढ़ाया वही कचरा देश में चारों ओर बिखरा हुआ देखा जा सकता है! कोई एक उदाहरण

देखना हो तो यह देख सकते हैं की जब जब देश के गौरवशाली इतिहास पर प्रहार हुआ देश का बड़ा वर्ग निष्क्रिय बैठा रहा! इस तरह से वामपंथ ने समाज को इस कदर बीमार कर दिया की जब भी कभी देश के समृद्ध अतीत को खंडित किया जाता है, सांस्कृतिक परम्परा की खिल्ली उड़ाई जाती है या फिर हमारे गुरूर को  फिल्मो और साहित्यों के माध्यम से तोड़ामरोडा जाता है, हमारे अपने समाज का एक बड़ा वर्ग दर्शक बन कर ताली बजा रहा होता है!

जब मोदी जी से एकमात्र महत्वपूर्ण सवाल राष्ट्रगान पर उठ रहे वादविवाद और भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारों आदि पर पूछा गया तो सवाल के जवाब में उनका कहना उचित ही था कि हमे देखना होगा कि हमारी शिक्षा में कहाँ चूक रह गई! मेरी चिंता इस बात की है कि इस चूक को हमने ठीक करने के लिए पिछले दस सालों में क्या किया? इस सवाल का जवाब मुझे तंग कर रहा है!