यह घटना सन् 1270-1280 के बीच की है। दिल्ली में बादशाह बलबन (1266–1287) का राज्य था। उसके दरबार में एक अमीर दरबारी था जिसके तीन बेटे थे। उसके पास उन्नीस घोड़े भी थे। मरने से पहले वह वसीयत लिख गया था कि इन घोड़ों का आधा हिस्सा... बड़े बेटे को, चौथाई हिस्सा मंझले को और पांचवां हिस्सा सबसे छोटे बेटे को बांट दिया जाये।
बेटे उन 19 घोड़ों का इस तरह बंटवारा कर ही नहीं पाये और बादशाह के दरबार में इस समस्या को सुलझाने के लिए अपील की। बादशाह ने अपने सब दरबारियों से सलाह ली पर उनमें से कोई भी इसे हल नहीं कर सका। उस समय प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो बादशाह का दरबारी कवि था। उसने जाटों की भाषा को समझाने के लिए एक पुस्तक भी बादशाह के कहने पर लिखी थी जिसका नाम “खलिक बारी” था। खुसरो ने कहा कि मैंने जाटों के इलाक़े में खूब घूम कर देखा है और पंचायती फैसले भी सुने हैं और सर्वखाप पंचायत का कोई पंच ही इसको हल कर सकता है। नवाब के लोगों ने इन्कार किया कि यह फैसला तो हो ही नहीं सकता..! परन्तु कवि अमीर खुसरो के कहने पर बादशाह बलबन ने सर्वखाप पंचायत में अपने एक खास आदमी को चिट्ठी देकर गांव: सौरम (जिला: मुज़फ्फरनगर ) भेजा (इसी गांव में शुरू से सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय चला आ रहा है और आज भी मौजूद है)।
चिट्ठी पाकर पंचायत ने प्रधान पंच चौधरी रामसहाय सूबेदार को दिल्ली भेजने का फैसला किया। चौधरी साहब अपने घोड़े पर सवार होकर बादशाह के दरबार में दिल्ली पहुंच गये और बादशाह ने अपने सारे दरबारी बाहर के मैदान में इकट्ठे कर लिये। वहीं पर 19 घोड़ों को भी लाइन में बंधवा दिया।चौधरी रामसहाय ने अपना परिचय देकर कहना शुरू किया, “शायद इतना तो आपको पता ही होगा कि हमारे यहां राजा और प्रजा का सम्बंध बाप बेटे का होता है और प्रजा की सम्पत्ति पर राजा का भी हक होता है। इस नाते मैं जो अपना घोड़ा साथ लाया हूं, उस पर भी राजा का हक बनता है। इसलिये मैं यह अपना घोड़ा आपको भेंट करता हूं और इन 19 घोड़ों के साथ मिला देना चाहता हूं, इसके बाद मैं बंटवारे के बारे में अपना फैसला सुनाऊंगा।” बादशाह बलबन ने इसकी इजाजत दे दी और चौधरी साहब ने अपना घोड़ा उन 19 घोड़ों वाली कतार के आखिर में बांध दिया, इस तरह कुल बीस घोड़े हो गये।
अब चौधरी ने उन घोड़ों का बंटवारा इस तरह कर दिया, आधा हिस्सा (20/2 = 10) यानि दस घोड़े उस अमीर के बड़े बेटे को दे दिये। चौथाई हिस्सा (20/4 = 5) यानि पांच घोडे मंझले बेटे को दे दिये। पांचवां हिस्सा (20/5 = 4) यानि चार घोडे छोटे बेटे को दे दिये। इस प्रकार उन्नीस (10 + 5 + 4 = 19) घोड़ों का बंटवारा हो गया। बीसवां घोड़ा चौधरी रामसहाय का ही था जो बच गया। बंटवारा करके चौधरी ने सबसे कहा, “मेरा अपना घोड़ा तो बच ही गया है, इजाजत हो तो इसको मैं ले जाऊं?” बादशाह ने हां कह दी और चौधरी साहब का बहुत सम्मान और तारीफ की। चौधरी रामसहाय अपना घोड़ा लेकर अपने गांव सौरम की तरफ कूच करने ही वाले थे, तभी वहां पर मौजूद कई हजार दर्शक इस पंच के फैसले से गदगद होकर नाचने लगे और कवि अमीर खुसरो ने जोर से कहा, “अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा”।
सारी भीड़ इसी पंक्ति को दोहराने लगी। तभी से यह कहावत हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तरप्रदेश तंथा दूसरी जगहों पर फैल गई। यहां यह बताना भी जरूरी है कि यह वृत्तांत सर्वखाप पंचायत के अभिलेखागार में मौजूद है। और बता दु उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी जाट है और पढ़े लिखे भी कांग्रेस वालों बच कर रहो ये ख़ुदा तुम्हारी क़ब्र खोद देगा।