आज जब हम वैश्विक जनसंख्या, धर्मों का अनुपात और राजनीतिक प्राथमिकताओं की बात करते हैं, तो यह विषय न केवल आंकड़ों का खेल बन जाता है, बल्कि यह विश्व की दिशा और भविष्य की झलक भी प्रदान करता है। एथेल कैटरहैम, जो वर्तमान में दुनिया की सबसे बुजुर्ग जीवित महिला हैं, उनके जीवनकाल को ही लें—1909 में जन्म लेने वाली एथेल ने एक ऐसा युग देखा है जिसमें विश्व ने दो विश्व युद्ध, उपनिवेशवाद का अंत, तकनीकी क्रांति और सामाजिक परिवर्तनों की लंबी श्रृंखला देखी।
लेकिन इन सबसे इतर, एक और परिवर्तन जो उनके जीवनकाल में लगातार घटित हो रहा है, वह है धर्म के आधार पर जनसंख्या का बदलाव। जब एथेल का जन्म हुआ था, तब दुनिया में हिंदुओं की संख्या मुसलमानों की तुलना में अधिक थी। परंतु आज, यह संतुलन बदल चुका है और अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले वर्षों में मुस्लिम जनसंख्या हिंदुओं की तुलना में दुगुनी हो जाएगी। यह बदलाव सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव भी गहरे हैं।
जनसंख्या में बदलाव और उसका प्रभाव
जनसंख्या में हो रहे यह बदलाव महज धार्मिक आंकड़े नहीं हैं, बल्कि ये वैश्विक सत्ता संतुलन, नीति निर्धारण और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को भी प्रभावित करते हैं। जैसे-जैसे मुस्लिम जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे पश्चिमी देशों में इस्लाम और मुस्लिम समुदायों की ओर झुकाव भी देखा जा रहा है। यह झुकाव केवल मानवीयता या धार्मिक सहिष्णुता की दृष्टि से नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक सोच का भी परिणाम है—"जहां जनसंख्या होगी, वहीं भविष्य का प्रभाव होगा।"
अक्सर यह देखा जाता है कि यूरोप, अमेरिका जैसे देश अपने नीति निर्धारण में मुस्लिम देशों या इस्लामिक विचारधारा के प्रति अधिक सतर्क और संवेदनशील हो जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि जैसे-जैसे जनसंख्या का अनुपात बदलता है, वैसे-वैसे चुनावों, सामाजिक विमर्श और नीति निर्धारण में उस समुदाय का प्रभाव बढ़ने लगता है। यही कारण है कि "Demography is destiny" यानी "जनसांख्यिकी ही भाग्य है"—यह कथन अब एक सत्य के रूप में सामने आ रहा है।
भारत और जनसंख्या संतुलन
भारत, जो कभी विश्व की सबसे बड़ी हिंदू जनसंख्या वाला देश था, आज भी ऐसा ही है, लेकिन यहां भी मुस्लिम जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। जबकि हिंदू समुदाय में जन्म दर धीरे-धीरे स्थिर हो रही है या कम हो रही है, वहीं मुस्लिम समुदाय में जन्म दर तुलनात्मक रूप से अधिक बनी हुई है। यह परिवर्तन आने वाले दशकों में राजनीतिक संतुलन और सांस्कृतिक दिशा को बदल सकता है।
पश्चिम का इस्लाम की ओर झुकाव
एक बड़ा प्रश्न अक्सर लोगों के मन में आता है—पश्चिमी देश इस्लाम को लेकर इतने सतर्क और सहानुभूतिशील क्यों हैं? क्या यह केवल अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए है, या इसके पीछे कोई रणनीतिक सोच भी है? उत्तर शायद जनसांख्यिकी में छिपा है।
जब किसी देश या समाज में किसी विशेष समुदाय की जनसंख्या बढ़ती है, तो वह समुदाय सामाजिक विमर्श, मीडिया, शिक्षा और राजनीति में भी अपनी पकड़ बनाता है। पश्चिमी देश यह भलीभांति समझते हैं कि आने वाले वर्षों में मुस्लिम जनसंख्या उनके देशों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। इसलिए, वे पहले से ही उस दिशा में अपनी नीतियों को ढालने लगे हैं।
सांस्कृतिक और सामाजिक असर
जनसंख्या में बदलाव केवल राजनीतिक असर नहीं डालते, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप को भी प्रभावित करते हैं। जैसे-जैसे किसी धर्म या समुदाय की जनसंख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे उनकी संस्कृति, त्योहार, खानपान, पहनावा और भाषा समाज में अधिक स्वीकार्य होते जाते हैं। यह परिवर्तन धीमा लेकिन स्थायी होता है।
समाधान और संतुलन की आवश्यकता
यह स्पष्ट है कि जनसंख्या में हो रहा यह परिवर्तन विश्व के लिए एक नई चुनौती और अवसर दोनों प्रस्तुत करता है। यह आवश्यक है कि सभी धर्मों और समुदायों के लोग जनसंख्या संतुलन, शिक्षा और सामाजिक समरसता को बढ़ावा दें। यदि एक धर्म विशेष की जनसंख्या अत्यधिक बढ़ती है, तो इससे सामाजिक तनाव और प्रतिस्पर्धा भी बढ़ सकती है।
निष्कर्ष
एथेल कैटरहैम के जीवनकाल में विश्व ने अनगिनत बदलाव देखे हैं, लेकिन धर्म के आधार पर जनसंख्या का यह परिवर्तन शायद सबसे स्थायी और प्रभावशाली साबित हो रहा है। "Demography is destiny" अब केवल एक कहावत नहीं रही, बल्कि एक वैश्विक सत्य बन चुका है। पश्चिम का इस्लाम की ओर झुकाव, भारत सहित अन्य देशों में मुस्लिम जनसंख्या का बढ़ना, और नीति-निर्धारण में उसका असर—ये सब आने वाले युग की नई तस्वीर को आकार दे रहे हैं। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हम जनसंख्या और उसकी दिशा को समझें, उसका विश्लेषण करें, और उसके अनुसार अपने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के साथ-साथ सामंजस्य का मार्ग अपनाएं।