आज से 35 वर्ष पहले, 19 जनवरी 1990 को, कश्मीर घाटी में कश्मीरी हिंदुओं का जो संहार हुआ, वह भारत के इतिहास में एक काला अध्याय है। उनकी जमीन, घर, और पहचान छीन ली गई। लेकिन 35 वर्षों के बाद भी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। हिंदू समाज आज भी निष्क्रियता और लापरवाही में डूबा हुआ है।
"बटव रोचतूय, बटिनेव तचान" का भयावह संदेश
कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के समय दिए गए इस नारे का अर्थ था, "हिंदू पुरुषों के बिना, हिंदू महिलाओं के साथ।" यह न केवल घृणा और सांप्रदायिकता का प्रतीक था, बल्कि यह एक पूरी सभ्यता को मिटाने का प्रयास था। यह संदेश हिंदू समाज के लिए एक चेतावनी है कि कमजोर होने पर कैसे उसकी अस्मिता को खत्म किया जा सकता है।
हिंदू समाज की गलतियां और निष्क्रियता
कश्मीरी हिंदुओं की त्रासदी से हिंदू समाज ने कुछ नहीं सीखा। 1990 की इस घटना को केवल "स्थानीय समस्या" मानकर भुला दिया गया। यह भूलना एक बड़ी भूल थी, क्योंकि यह संहार केवल एक समुदाय पर हमला नहीं था, बल्कि पूरे हिंदू समाज की अस्मिता पर हमला था।
सेक्युलरिज्म और लिबरांडु मानसिकता
आज भी हिंदू समाज "सेक्युलर" और "लिबरल" कहलाने की होड़ में अपनी जड़ों से कटता जा रहा है। सेक्युलरिज्म का मतलब अपनी अस्मिता को खोना नहीं है, लेकिन तुष्टीकरण की राजनीति और दिखावटी लिबरलिज्म हमें हमारी संस्कृति और पहचान से दूर कर रही है।
जनता की जिम्मेदारी
अब समय आ गया है कि हिंदू समाज अपनी गलतियों को समझे और उनसे सीखे। अगर 35 वर्षों के बाद भी जागरूकता नहीं आई, तो इतिहास खुद को दोहराएगा। यह लड़ाई केवल कश्मीरी हिंदुओं की नहीं थी, बल्कि पूरे हिंदू समाज की थी। समाज को एकजुट होकर खड़ा होना होगा।
आगे का रास्ता
हमें अतीत पर शोक मनाने के बजाय उससे सबक लेकर भविष्य को सुरक्षित बनाना होगा। अपने समाज, धर्म, और संस्कृति के प्रति जागरूकता और सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। राजनीति, शिक्षा और विचारधारा में बदलाव लाकर समाज को मजबूत बनाना आवश्यक है।
निष्कर्ष
कश्मीरी हिंदुओं का संहार हमारी सभ्यता पर लगा एक गहरा घाव है, जो 35 वर्षों के बाद भी हरा है। लेकिन यह घाव हमें जागरूक और एकजुट होने का संदेश भी देता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा अन्याय फिर कभी न हो।
कभी मत भूलें। कभी नहीं।