पर्दा और घूँघट प्रथा का वर्तमान स्वरूप मुग़लों की देन है। किन्तु प्राचीन भारत में पर्दा प्रथा और घूँघट प्रथा रही है, वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था। ऐसा भी नहीं था कि सिर ढँकना स्त्रियों के लिये ही अनिवार्य था, पुरुषों के लिये भी सिर ढँकना अनिवार्य था। स्त्रियाँ साड़ी चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं, तो पुरुष मुकुट पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे।
स्त्रियों का पहनावा कैसा हो? इस विषय में स्वयं वेद प्रमाण है, ऋग्वेद १०/७१/४ में कहा है, 'स्त्री को लज्जापूर्ण रहना चाहिये, कि दूसरा पुरुष मनुष्य उसका रूप देखता हुआ भी न देख सके। वाणी सुनता हुआ भी पूरी तरह न सुन सके।'
एक अन्य मन्त्र में अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर। मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।। (ऋग्वेद ८/४३/१९) अर्थात्: 'साध्वी नारी! तुम नीचे देखा करो (तुम्हारी दृष्टि विनय से झुकी रहे)। ऊपर न देखो। पैरों को परस्पर मिलाये रक्खो (टाँगों को फैलाओ मत)। वस्त्र इस प्रकार पहनो, जिससे तुम्हारे ओष्ठ तथा कटिके नीचे के भागपर किसी की दृष्टि न पड़े।' इससे स्पष्ट है कि स्त्री सलज्ज और मुख पर घूँघट डाले रहे। पर्दा प्रथा के इतिहास पर भी अवलोकन करें, तो सर्वप्रथम रामायण के प्रसङ्ग देखिये।
माता जानकी जी जब वनवास जा रही थीं, तब उन्हें देखने वाली प्रजा कहती है :
या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि । तामद्य सीतां पश्यति राजमार्गगता जना: ।। (वाल्मीकिरामायण २/३३/८) अर्थात्: 'ओह! पहले जिसे आकाशमें विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे, उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं।'
मन्दोदरी रावण के वध पर विलाप करते हुए कहती है :
दृष्ट्वा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहान वगुष्ठिताम् निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो ।। (वाल्मीकिरामायण ६/१११/६१) अर्थात्: 'प्रभो! आज मेरे मुँह पर घूँघट नहीं है, मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी हूँ। इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं?'
दूसरा प्रसङ्ग महाभारत से देखिये, कुरुसभा में द्यूतक्रीड़ाके समय द्रौपदी कहती हैं :
यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे । साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ।। महाभारत सभापर्व ६९/५ अर्थात्: 'पहले राजभवन में रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे, वही आज इस सभा के भीतर महान् जन समुदाय में आकर सबके नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ।'
रामायण महाभारत के प्रसङ्गों से ऐसा प्रतीत होता है, पर्दा प्रथा सामान्य स्त्रियों के लिये न होकर राजवंशकी राजकुमारियों रानियों के लिये ही थी। राजवंश की ये रानी राजकुमारियां बड़े सुखों से रहती थीं, जैसे आधुनिक युग में ऐसी में रहने वाली। वे विशिष्ट अवसरों पर ही बाहर निकलती थीं, वे अवसर थे :
व्यासनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे । न कृतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२८ अर्थात्: 'विपत्तिकाल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसर पर, युद्ध में, यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दिखना दोष की बात नहीं है।' अर्थात् इन अवसरों पर राजकुल की स्त्रियाँ पुरुषों के मध्य जाती थीं, उस समय उन्हें कोई दोष नहीं देता था।
पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण, प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है :
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया । नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२७ अर्थात्: 'घर, वस्त्र और चहारदीवारी आदि वस्तुएँ स्त्री के लिये परदा नहीं हुआ करतीं। इस तरह लोगों को दूर हटाने (किसी स्त्री के समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना, जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें) से जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है, ये भी स्त्री के लिये आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं। पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार, ये ही उसके लिये आवरण हैं।'