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वीर सावरकर से कांग्रेस इतना डरती क्यूं है, क्या है सच?

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के सर्वाधिक क्रूर सैन्य अधिकारियों में से एक था सर कर्जन वाइली। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की गतिविधियों को अपनी प्रचण्ड बर्बरता क्रूरता के द्वारा रोकने की कर्जन वाइली की करतूतों से प्रसन्न होकर ब्रिटिश शासकों ने उसे भारत में ब्रिटिश सरकार के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लार्ड जॉर्ज हैमिल्टन के निजी सचिव/सलाहकार के महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया था।

इस अत्याचारी नराधम कर्जन वाइली को लंदन के सभागार में 1 जुलाई 1909 को अमर शहीद मदनलाल ढींगरा ने अपनी पिस्तौल की गोलियों से मौत के घाट उतार दिया था। कर्जन वाइली की मौत पर मातम मनाने तथा मदनलाल ढींगरा की निन्दा करने के लिए अंग्रेजों के दलाल चाटुकार-चमचे आगा खां ने अन्य अंग्रेज भक्त भारतीयों की एक सभा का आयोजन लंदन के इंडिया हाऊस में 5 जुलाई 1909 को किया था।

उस सभा में मदनलाल ढींगरा की निन्दा वाले भाषण जोरशोर से दिए गए। ऐसे भाषण देने वालों में दो नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहला नाम है सुरेन्द्रनाथ बनर्जी। वो कांग्रेस का संस्थापक सदस्य था और 1895 तथा 1902 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुका था। उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे नाइटहुड प्रदान कर "सर" की उपाधि से सम्मानित किया था। उसने इस उपाधि को ब्रिटिश महाराज के सामने घुटने टेक कर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार रहने की कसम खा कर ग्रहण किया था।।मदनलाल ढींगरा की निन्दा के लिए आयोजित उस सभा में भाषण देने वाला दूसरा व्यक्ति था विपिनचन्द्र पाल। वह उस समय कांग्रेस के टॉप 5 नेताओं में से एक था।

उस सभा में सारे भाषण सम्पन्न हो जाने के पश्चात अंग्रेजों के दलाल चाटुकार-चमचे आगा खां ने मदनलाल ढींगरा की निन्दा का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए ऐलान किया था कि... "यह सभा सर्वसम्मति से मदनलाल ढींगरा के दुष्कृत्य की घोर निन्दा करती है और..." आगा खां का वह वाक्य पूरा होने से पहले ही हॉल में एक व्यक्ति खड़ा होकर अपनी पूरी शक्ति से गरजा था। पूरे हॉल में उसकी यह गर्जना गूंज गई थी... "मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं, इसे सभा का सर्वसम्मत मत नहीं कहा जा सकता।"

यह गर्जना करने वाले व्यक्ति का नाम था... विनायक दामोदर सावरकर। सावरकर की इस गर्जना से क्रोधित उत्तेजित होकर एक काले अंग्रेज पामर ने उनके मुंह पर भरपूर ताक़त से घूंसा मारा था। परिणामस्वरूप सावरकर का चश्मा टूट गया था और उनके मुंह से खून निकलने लगा था। इसके जवाब में सावरकर के साथी तिरुमल आचार्य ने उस काले अंग्रेज के सिर पर पूरी ताकत से डंडा मारकर उसकी खोपड़ी फाड़ दी थी और अपनी पिस्तौल निकाल कर उसे मौत के घाट उतारने की तैयारी कर ली थी। 

लेकिन सावरकर ने तिरुमल को यह कह कर रोक दिया था कि इस खटमल के खून से अपने हाथ गंदे मत करो। लेकिन इस जबरदस्त संघर्ष के कारण सभा में भगदड़ मच गई थी। सावरकर और उनके साथियों के प्रचण्ड तेवरों से दहले आगा खां और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी सरीखे अंग्रेजों के चाटुकारों/चमचों की भीड़ सभा से जान बचाकर भाग खड़ी हुई थी और मदनलाल ढींगरा की निन्दा का प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था।

यद्यपि मदनलाल ढींगरा ने अदालत में अपने बयान में किसी का भी नाम नहीं लिया था और 1909 को फांसी के फंदे को चूम लिया था। लेकिन इसके बाद 13 मई 1910 को ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को कर्जन वाइली की हत्या की साज़िश के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी।

सावरकर से घृणा, उनके विरोध का पाखण्ड करने वाली कांग्रेस दरअसल उनकी ज़िन्दगी की ऐसी सच्चाईयों से आज भी भयभीत रहती है क्योंकि उन सच्चाईयों की तहों में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी और विपिन चन्द्र पाल सरीखे अनेक अध्याय दबे हुए हैं। ये अध्याय आज़ादी दिलाने की कांग्रेसी ठेकेदारी के दावे की धज्जियां उड़ा देते हैं।

विशेष सूचना सावरकर विरोधी जिन सेक्युलर लिबरल वामपंथी कांग्रेसी लगुओं भगुओं को उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि करनी हो वो सभी लगुए भगुए अमर बलिदानी क्रांतिकारी आज़ाद चंद्रशेखर, भगत सिंह के क्रांतिकारी साथी सहयोगी रहे मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक "क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक इतिहास" के पृष्ठ 71, 72, 73 पढ़ें। तथा क्रांतिकारियों के संघर्ष के स्वर्णिम इतिहास का जयगान करते "क्रांतिकारी कोष" नामक ग्रन्थ में "मदनलाल ढींगरा" शीर्षक वाले अध्याय को पढ़ लें।