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‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम का विश्व के महापुरुषों में सर्वोत्तम स्मरणीय चरित्र’

हम भारत व विश्व के सर्वोत्तम आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन के कुछ प्रेरणादायक व आदर्श प्रसंगों को प्रस्तत कर रहे हैं। आर्य विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने उनके विषय में लिखा है कि श्री राम अयोध्या के राजा थे। वे बड़े प्रतापी, सहनशील, धर्मात्मा, प्रजापालक, निष्पाप, निष्कलंक थे। उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने मानव समाज के लिए आदर्श व्यवहार की मर्यादाएं स्थापित कीं। वे आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व त्रेतायुग के अन्त में हुए थे। उनके समकालीन महर्षि वाल्मीकि ने अपने रामायण ग्रन्थ में उनका जीवन चरित्र दिया है। 

महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में बैठे थे। घूमते हुए नारद मुनि वहां आ पहुंचे। तब वाल्मीकि ने नारद से पूछा? इस संसार में वीर, धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी, सच्चरित्र, सब प्राणियों का हितकारी, विद्वान, उत्तम कार्य करने में समर्थ, सब के लिए प्रिय दर्शन वाला, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, तेजस्वी, ईष्र्या न करने वाला, युद्ध में क्रोध आने पर देव भी जिससे भयभीत हों ऐसा मनुष्य कौन है, यह जानने की मुझे उत्सुकता है। तब नारद मुनि ने ऐसे बहुत से दुर्लभ गुणों वाले श्री राम का वृत्तान्त सुनाया।

महाराजा दशरथ ने श्री राम को युवराज बनाने का अपना विचार सारी परिषत् के सामने रखा। तब परिषत् ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए श्री राम के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया ‘प्रजा को सुख देने में श्री राम चन्द्रमा के तुल्य हैं, वे धर्मज्ञ, सत्यवादी, शीलयुक्त, ईष्र्या से रहित, शान्त, दुखियों को सान्त्वचना देने वाले, मधुरभाषी, कृतज्ञ, और जितेन्द्रिय हैं।… मनुष्यों पर कोई आपत्ति आने पर वे स्वयं दुःखी होते हैं और उत्सव के समय पिता की भान्ति प्रसन्न होते हैं।... उनका क्रोध और प्रसन्नता कभी निरर्थक नहीं होती। वे मारने योग्य को मारते हैं और निर्दोषों पर कभी क्रोध नहीं करते।’ 

श्री राम के गुणों का वर्णन कैकेयी ने स्वयं किया है। जब श्री राम को राजतिलक देने का निर्णय हुआ तब सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कैकेयी को यह समाचार उसकी दासी ने जाकर दिया। तब कैकेयी आनन्द विभोर हो गई और अपना एक बहुमुल्य हार कुब्जा को देकर कहने लगी, ‘‘हे मथरे ! तूने यह अत्यन्त आनन्ददायक समाचार सुनाया है। इसके बदले में मैं तुम्हें और क्या दूं।” परन्तु मन्थरा ने द्वेष से भरकर कहा कि राम के राजा बनने से तेरा, भरत का और मेरा हित न होगा। तब कैकेयी राम के गुणों का वर्णन करती हुई कहती है, ‘‘राम धर्मज्ञ, गुणवान्, जितेन्द्रिय, सत्यवादी और पवित्र हैं तथा बड़े पुत्र होने के कारण वे ही राज्य के अधिकारी हैं। राम अपने भाईयों और सेवकों का अपनी सन्तान की तरह पालन करते हैं।”  

श्री राम की महत्ता वसिष्ठ के शब्दों में... आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च। न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।।    
(वाल्मीकि रामायण)   

अर्थ: राज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किए गए श्री राम के मुख के आकार में मैंने कोई भी अन्तर नहीं देखा। राज्याभिषेक के अवसर पर उनके मुख मण्डल पर कोई प्रसन्नता नहीं थी और वनवास के दुःखों से उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं नहीं थी।

उदये सविता रक्तो रक्तरचास्तमये तथा। सम्पत्तौ च विपत्तौ न महतामेकरूपता।। 

अर्थ: सूर्य उदय होता हुआ लाल होता है और अस्त होता हुआ भी लाल होता है। इसी प्रकार महापुरुष सम्पत्ति और विपत्ति में समान ही रहते हैं। सम्पत्ति प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होते और विपत्ति पड़़ने पर दुःखी नहीं होते। वन को जाते हुए श्री राम अयोध्यावासियों से कहते हैं ‘‘आप लोगों का मेरे प्रति जो प्रेम तथा सम्मान है, मुझे प्रसन्नता तभी होगी यदि आप मेरे प्रति किया जाने वाला व्यवहार ही भरत के प्रति भी करेंगे।”  

अपने नाना के यहां से अयोध्या लौटने पर जब भरत और शत्रुघ्न को पता लगा कि सारे पाप की जड़ मन्थरा है, तब शत्रुघ्न को उस पर बहुत क्रोध आया और उसने मन्थरा को पकड़ लिया और उसे भूमि पर पटक कर घसीटने लगा। तब भरत ने कहा, यदि इस कुब्जा के मारने का पता श्री राम को चल गया तो वह धर्मात्मा हम दोनों से बात तक न करेंगे। यह थी श्री राम की महत्ता।   

हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता से श्री रामचन्द्र जी की बाबत कहते हैं... यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः। धनुर्वेदे च वेदे च वेदांगेषु च निष्ठितः।।

अर्थ: श्री रामचन्द्र जी यजुर्वेद में पारंगत हैं, बड़े बड़े ऋषि भी इसके लिए उनको मानते अर्थात् आदर देते हैं तथा वे धनुर्वेद और वेद वेदांगों में भी प्रवीण हैं। यह वेद वेदांगों में प्रवीण होना उनके ऋषि होने का भी प्रमाण है। महाभारत के बाद श्री रामचन्द्र में निहित सभी गुणों वाले एक ही महापुरुष उत्पन्न हुए हैं। उनका नाम था स्वामी दयानन्द सरस्वती।

रामराज्य का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में बताया गया है... निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थं कश्चिदस्पृशत्।न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते।।

अर्थ: राज्य भर में चोरों, डाकुओं और लुटेरों का कहीं नाम तक न था। दूसरे के धन को कोई छूता तक न था। श्री राम के शासन काल में किसी वृद्ध ने किसी बालक का मृतक संस्कार (प्रेत कार्य) नहीं किया था अर्थात् राजा राम के समय में बाल मृत्यु नहीं होती थी।

सर्वं मुदितमेवासीत्सर्वो धर्मपरोऽभवत्। राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन्परस्परम्।।

अर्थ: रामराज्य में सब अपने-अपने वर्णानुसार धर्म कार्यों में तत्पर रहते थे। इसलिए सब लोग सदा सुप्रसन्न रहते थे। राम दुःखी होंगे इस विचार से प्रजाजन परस्पर एक दूसरे को दुःख नहीं देते थे।