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क्यों है मंदिर आर्थिक दृश्टिकोण से भी देश के लिए बहोत जरुरी।

जागो मित्रों.... हिंदू संस्कृति का सम्मान करो.... और उसके बचाने में सहयोग करो.
 

देश में करीब एक करोड़ मंदिर होंगे , हर मंदिर में पुजारी हो ऐसा जरूरी नहीं..लेकिन कई मंदिर ऐसे हैं जिनमें सौ सौ पुजारी होते हैं.... तो अगर औसत निकालें तो हर मंदीर पर एक पुजारी...हर पुजारी का कम से कम चार सदस्यों का परिवार... यानी मंदिर के वजह से चार करोड़ लोग पल रहे हैं सिर्फ पुजारियों के..उसके बाद हर मंदिर के बाहर औसतन दो पुजा सामग्री की दुकानों...तो फिर से 2×4=8 सदस्य... यानी करीब आठ करोड़ लोग इन दुकानों की वजह से पल रहे हैं।

उसको बाद वहाँ करीब एक करोड़ सफाई वाले उनके चार सदस्यों का परिवार माने चार करोड़ लोग फिर से मंदिर पर डिपेंड ...इसके अलावा जो लोग फुल, नारियल या पुजा सामग्री बनाते हैं उनके परिवार कि भी संख्या कम से कम एक करोड़ पकड़ लीजिये...उसके बाद बड़े त्योहारों जैसे होली दिवाली में रंग बनाने से लेकर फटाके बनाने वाले...गणपति और नवरात्रि में मुर्ती बनाने वाले...विसर्जन में ढोलक और DJ बजाने वाले...झालर लगाने वाले..मंडप वाले ..मेले लगने पर खिलौने से लेकर कान की बालियों तक कि दुकान लगाने वाले... झुला और पानीपुरी के ठेले लगाने वाले ... पुस्तकें बेचनेवाले...यात्रा के लिये ट्रेवल्स वाले ना जाने कितने ही करोड़ लोग मंदिर और त्यौहारों की वजह से कमा और परिवार पाल रहे हैं...उसके बाद कई बड़े मंदिर सरकार का खजाना भी तो भर रहे हैं?
गर मेरा अंदाजा गलत नहीं है तो कम से कम तीस करोड़ लोग डायरेक्टर या इन-डायरेक्ट तरीके से मंदिर की वजह से कमा रहे हैं... इतनी नौकरीयाँ देने का बुता तो सरकार तक का नहीं है.....मैं वैज्ञानिक और आर्थिक तौर पर हर चीज को देखता परखता और समझता हूँ ...... मैं खुद ब्राह्मण नहीं हूं ये संयोग है.....और मैं छुआछुत या भेदभाव के सखत खिलाफ हूँ ...लेकिन प्रगतिशील होने के लिये मैं ब्राम्हणों को गरिया नहीं सकता...जो गलत है उसे गलत कहता हूँ ...लेकिन इस मंदिर और त्यौहार व्यवस्था का इल्जाम ब्राम्हणों के सर मढ कर गरियाया जा रहा है तो शर्म आनी चाहीये...
 

नमन है उन ब्राम्हण पुर्वजों को जिन्होंने दुरदर्शिता दिखा कर काफी पहले ही भारत को मंदिर और त्यौहार देकर आर्थिक तौर पर इतना मजबूत विकल्प दिया है...इनको गरियाना है गरिया लीजिये ...सारे मंदिर तोड़ लिजीये ..सारे त्यौहार बंद कर दिजीये ...लेकिन साथ में यह भी बताइये की इस तीस करोड़ आबादी को कौन सा रोजगार देने की तैयारी रखी है? और मंदिर तथा त्यौहारों की वजहों से जो रोजगार मिला है वह सिर्फ ब्राम्हणों को मिला है? तीस करोड़ ब्राम्हण हैं? नहीं इसका सीधा लाभ मिला है दलित और पिछड़े वर्ग को। अब तो मंदिर में पुजारी भी अन्य जातियों के हैं ही... भारत को नास्तिक बनाने के पिछे देश का आर्थिक ढांचा तोड़ने की साजिश है।

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